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________________ ११६ तत्त्वार्थ सूत्रे प्रथमं शरीरग्रहणं कृतम् विशरणशीलत्वात् शरीराणि इत्यन्वर्थसंज्ञाबलात् विनश्वरत्वयुक्तशरीरस्य सिद्धानां सम्भवात् । अत एव - शरीरशब्दापेक्षया कायशब्दोपादाने लाघवसत्वेऽपि तदुपादानं कृतम् शरीरशब्दे - नाऽन्वर्थताप्रतिपादनद्वारा प्रतिपिपादयिषितस्य विशरारुतार्थस्य प्रतिपादितत्वात् । एवञ्च - औदारिकंवैक्रियं-आहारकं-तैजसं~कार्मणं चैतानि पञ्च शरीराणि संसारिजीवानां भवन्ति । तत्र - पूर्वपूर्वापेक्षया परं परं शरीरं सूक्ष्मम् बोध्यम् । यथौदारिकापेक्षया - वैक्रियं सूक्ष्मम् । वैक्रियापेक्षया आहारकं सूक्ष्मम्, आहारकापेक्षया तैजसं सूक्ष्मम्, तैजसापेक्षया कार्मणं सूक्ष्मम् तत्रोदारेण बृहदसारेण द्रव्येण निष्पन्नं शरीर मौदारिकम् । सारहीनस्थूलद्रव्यवर्गणार चितम् रिकप्रायोग्यपुद्गलग्रहणहेतुभूत पुद्गलविपाक्यौदारिकशरीरनामकर्मोदय निष्पन्नं शरीरमौदा रिकमुच्यते । उदारे स्थूले भवं वा औदारिकम्, उदारं स्थूलं वा प्रयोजनमस्येत्यौदारिकम् । एकानेकाणुमहच्छरीरविविधकरणं विक्रिया प्रयोजनमस्येति वैक्रियम् विक्रिया-विकुर्वणाशत्तया वा निर्वृत्तं निष्पादितं शरीरं वैक्रियमुच्यते । देवानां मूलशरीरं जिनजन्मादिकालेपि वैक्रियशरीरभवधार्य जन्मोत्सवस्थानेषु आगच्छति मूलरूपतो न, उत्तरशरीरं पुनरेकमनेकं वा जिनबतलाने के लिए सूत्र में सर्वप्रथम शरीर शब्द का प्रयोग किया गया है । शरीर नाशशील हैं। और सिद्धों में उनका होना संभवित नहीं है । 'शरीर' शब्द की अपेक्षा 'काय' शब्द छोटा है। फिर भी यहाँ कायशब्द का प्रयोग न करके जो शरीर शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका उद्देश्य शरीर की बिनाशशीलता दिखलाता है । 'शरीर' का व्युत्पत्त्यर्थ ही यह है कि जो विनाशशील हो । इस प्रकार संसारि जीवों के औदारिक, वैक्रिण, आहारक, तैजस और कार्माण, ये पाँच शरीर होते हैं । इन पाँच शरीरों में पूर्व - पूर्व शरीर की अपेक्षा उत्तरोत्तर शरीर सूक्ष्म होता है । औदारिक शरीर स्थूल है । उसकी अपेक्षा वैक्रय शरीर सूक्ष्म है, वैकय की अपेक्षा आहारक सूक्ष्म है, आहारक की अपेक्षा तैजस सूक्ष्म है और तैजस की अपेक्षा कार्मण शरीर सूक्ष्म 1 उदार अर्थात् स्थूल एवं असार द्रव्य से बना शरीर औदारिक कहलाता है । इस शरीर की उत्पत्ति औदारिक के योग्य पुद्गलों के ग्रहण के कारणभूत पुद्गलविचारी औदारिक शरीर नामकर्म के उदय से होती है । अथवा जो शरीर उदार अर्थात् स्थूल हो वह औदारिक या जिसका प्रोयजन उदार - स्थूल हो वह औदारिक । एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि अनेक रूप शरीर करना विक्रिया कहलाता है । विक्रिया करना जिसका प्रयोजन हो वह वैक्रिय शरीर । अथवा विक्रियाशक्ति के द्वारा उत्पन्न किया गया शरीर वैक्रिय शरीर कहलाता है । देवों का मूल शरीर तीर्थंकर भगवान् के जन्मकल्याणक आदि के समय भी बैकिय शरीर धारण कर जन्मउत्सव के स्थान पर आते हैं। मूल रूप से नहीं एक अथवा अनेक रूप उत्तरशरीर શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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