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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० १ सु. २९ जीवानां शरीरधारणं तल्लक्षनिरूपणं च ११५ उच्यते प्रवचनोक्तानां चतुरशीतिलक्षयोनीनां संग्रहकतया नवयोनय इति प्रतिपादितम् । विस्तरस्तु - प्रतिजाति-वक्तव्यः, पृथिवीकायस्य याऽभिहिता योनिः सैव स्वजातिभेदापेक्षया । सप्तलक्षपरिमाणा भवति । शर्करा वालुकाप्रभृतिभेदा यावत्यो जातयो भवन्ति, तावद् भेदा: योनयोsपि पृथिवीकायस्यावगन्तव्या इति । ताश्च न मूलयोनिमतिक्रमन्ति, अपितु जातिभेदात् भिद्यन्ते । अतः संग्राहकमेतद् वचनम - वगन्तव्यम्, एवमन्येषामपि स्वजातिभेदात् बहुत्वं वक्तव्यम् । तथाच - स्वजातिभेदापेक्षमेतत् । परिमाणमवगन्तव्यम् ॥ २८॥ मूलसूत्रम् - - " सरीराई पंच, ओरालिय वेउच्चिय - आहारग - तेयगकम्माई - "॥२९॥ छाया --- 'शरीराणि पञ्च औदारिक- वैक्रियाऽऽहारक- तैजस-कार्मणानि ||२९|| तत्त्वार्थदीपिका -- पूर्वंतावत् जीवानां संसारिणां गर्भपपातसम्मूर्च्छनजन्मभेदेन त्रिविधं जन्मप्ररूपितम् सम्प्रति-तेषां खलु जीवानां तेषु जन्मसु कानि शरीराणि कियन्ति वा किं लक्षणा वाताने शरीराणि भवन्तीति प्रतिपादयितुमाह – “सरीराई पंच, ओरालिय- वेउब्वियआहारगतेय - कम्माई शरीराणि—–शीर्यन्ते इति शरीराणि प्रतिक्षणं शीर्यमाणत्वात् तानि विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तिनि पच्च सन्ति औदारिक - वैक्रिय - आहारक - तैजस - कार्मणानि, एतानि तावद् शरीराणि यथासम्भवं नारकादिगतिचतुष्टयवर्तिनामेव जीवानां भवन्ति - नसिद्धानामिति सामर्थ्याद् बोधयितुं निरूपण क्यों किया है ? इसका समाधान यह है कि शास्त्र में प्रतिपादित चौरासी लाख योनियों का उक्त नौ योनियों में ही संग्रह हो जाता है। चौरासी लाख का कथन विस्तार की अपेक्षा से है, यथा- पृथ्वीकाय की जो योनि कही है वही जातिभेद की अपेक्षा सात लाख परिमाणवाली है । शर्करा बालुका आदि पृथ्वी की जो जातियाँ कही गई हैं, पृथ्वीकाय की योनियाँ भी उतनी ही समझना चाहिए। वे योनियाँ अपनी मूलयोनि से अतिरिक्त नहीं है, किन्तु जातिभेद से उनमें भेद हो जाता है । अतएव यह वचन संग्राहक वचन समझना चाहिए । इसी प्रकार अन्य जीवों की योनियाँ भी जातिभेद की अपेक्षा से बहुसंख्यक हैं ||२८|| सूत्र - 'सरीराई पंच' इत्यादि ॥ २९ ॥ " मूलसूत्रार्थ - शरीर पाँच हैं- औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्मण ॥२९॥ तत्त्वार्थदीपिका --- पहले संसारी जीवों के गर्भ, उपपात और संमूर्च्छन के भेद से तीन प्रकार के जन्म बतलाए गए हैं । अब यह बतलाते हैं कि उन जन्मों में जीवों के कौन से शरीर होते हैं ? कितने होते हैं ? उन शरीरों के लक्षण क्या हैं ? जो प्रतिक्षण शीर्ण - विनष्ट होते रहते हैं, वे शरीर कहलाते हैं । विशिष्ट नामकर्म के उदय से उनकी रचना होती है । वे पाँच हैं औदारिक, वैक्रिय,, आहारक, तैजस और कार्मण । यह शरीर यथासंभव नरक आदि चार गतियों के जीवों को ही होते हैं, सिद्ध जीवों को नहीं, यह 1 શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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