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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ०१ सू. २८ जीवस्योत्पादनिरूपणम् ११३ संवृताप्रच्छन्नासंकुटा । गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्मनुष्याणां संवृतविवृतप्रच्छन्नप्रकाशा । तदन्येषां सम्मूर्च्छिमद्वीन्द्रियादितिर्यग्मनुष्याणां विवृता योनिः प्रज्ञप्ता अतिप्रकाशत्वात् । तत्र -- यस्मिन् स्थाने युवन्तिमिश्रीभवन्ति जन्महेतु द्रव्याणि कार्मणेन सह तद् योनिः । यद्वास्थानमाश्रयं भावेन यूयते -मिश्रीक्रियते इति योनिः । सा च योनिः काचित् जीवप्रदेशाधिष्ठितत्वात् सचित्ता व्यपदिश्यते, तद्विपरीता - अचित्ता । उक्तोभयस्वभावा मिश्रा - सचित्ताऽचित्ता शिशिरत्वात् - शीताः । तद्विपरीता - उष्णा, शीतोष्णोभयस्वभावा मिश्रा, प्रच्छन्नत्वात् - संवृता - संकटा वा व्यपदिश्यते । तद् विपरीता प्रकाशत्वात् विवृता, तदुभयस्वभावा मिश्रा, संवृतविवृता योनिरुच्यते । तत्रदेवानां प्रच्छदपटदेवदूष्यान्तरालरूपा योनिः जीवप्रदेशानाधिष्ठितत्वात् चेतना - उच्यते । नारकाणां वज्रमयनरकक्षेत्रे गवाक्षसदृशी नानाप्रकारककुम्भीयोनिः अचेतना भवति । तिरश्चीनां मानुषीणां च स्त्रीणां खलु नाभेरधस्तात् सिराद्वयं पुष्पमाला वैकक्ष्यकाकारं भवति । तस्याधस्तात् अधोमुखसंस्थितकोशकारा योनिर्भवति । Treat की प्रारंभ की तीन पृथ्वियों में शीत योनि होती है। चौथी और पांचवी पृथ्वी में किसीकिसी नारकावास में शीत और किसी-किसी में उष्ण होती है । छठी और सातवीं नरकभूमि उष्ण योनि होती है । नारकों, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और देवों की संवृत (प्रच्छन्न ढंकी हुई) योनि होती है। गर्भज तिर्यंचों और मनुष्यों की संवृत - विवृत अर्थात् ढंकी उघाड़ो योनि होती है । इनसे अतिरिक्त समूर्च्छिम, द्वीन्द्रिय आदि तिर्यचों और मनुष्यों की विवृत योनि कही गई है; क्योंकि वह बिल्कुल उद्याड़ी होती है । 1 जिस स्थान पर जन्म के कारणभूत द्रव्य कार्मण शरीर के साथ मिश्रित होते हैं, उसे योनि कहते हैं अथवा जो स्थान आश्रय के रूप में मिश्रित किया जाता है, वह योनि है । जीव के प्रदेशों से अधिष्ठित (युक्त) होने के कारण कोई योनि सचित्त कहलाती है और जो इससे विपरीत हो वह अचित्त कही जाती है। जो दोनों प्रकार की हो वह सचित्ताचित्त है। ठंडी योनि शीत, इससे विपरीत उष्ण और दोनों स्वभाव वाली शीतोष्ण कहलाती है । जो ढंकी हो वह संवृत, उससे विपरीत उघाड़ी जो हो वह विवृत और जो दोनों प्रकार की हो वह संवृत विवृत कही जाती है । प्रच्छद पट और देवदूष्य के बीच का स्थान जीवप्रदेशों से अधिष्ठित न होने के कारण देवों की योनि अचित्त मानी गई है । नारक जीवों की वज्रमय नरकक्षेत्र में गवाक्ष के समान, अनेक आकारों की कुंभी योनि अचेतन होती है । तिर्यञ्च और मनुष्य स्त्रियों की नाभि से नीचे पुष्पमाला वैकक्ष्य के आकार की दो शिराएँ होती हैं । उनके नीचे अधोमुख कोश के आकार की योनि होती है । उसके बाहर आम की कली के आकार की मांस की मंजरियाँ होती हैं । ऋतु के समय फूट जाती हैं और उनसे रुधिर बहता है । उनमें से कतिपय रुधिर कण १५ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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