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________________ m तत्त्वार्यस्त्रे प्रथमा-उत्पत्तिः बन्धसामान्ये, मध्यमा उत्पत्तिः उपकारभेदविवक्षाद्वारेण, अन्तिमा उत्पत्तिः प्रदेशबन्धप्रस्तावाकृष्टा भवति । तस्मात् तिसृणामपि-उत्पत्तीनां सूचनं भवति ।। न तु-अभिन्नैकवस्तुसन्निपातिन्यस्तिस्रोऽपि उत्पत्तयो भवन्ति पुनरुक्तदोषापत्तेः । तस्मात् तदेवंविधं पुद्गलग्रहणं जन्म व्यपदिश्यते इतिभावः । इत्येवं रीत्या शरीरिणां प्रादुर्भावमात्रलक्षणं जन्म प्ररूपितम् सम्प्रति-कीदृशे स्थाने प्रथमतः समुत्पद्यमानाः जीवाः शुक्रशोणितग्रहणं कुर्वन्ति सम्मूर्च्छन्ति वा वैक्रियशरीरं वा समुपाददेत किं गुणे किं विशिष्टे वा स्थाने नारकदेवाः प्रादुर्भवति इति शङ्कां समाधातुं तेषां जन्मनां विशिष्ट स्थानप्ररूपणाय योनिस्वरूपमुच्यते संसारे जीवानामुपयुक्तस्य त्रिविधस्य जन्मनः प्रत्येकशो नवयोनयो भवन्ति सचित्ता १ अचित्ता २ सचित्ताचित्ता ३ शीत-४उष्णा-५शीतोष्णा-६संवृता-७विवृता-८संवृतविवता-९चेति । तत्र-नारकदेवानामचित्तायोनिः । गर्भजन्मनां मनुष्यतिरश्चां मिश्रा सचित्ताचित्तरूपा । तदन्येषां सम्मूर्च्छनजन्मनां तिग्मनुष्याणां त्रिविधा कदाचित्तत् सचित्ता, कदाचिदचित्ता, कदाचिन्मिश्राचेति । गर्भव्युत्क्रान्तानां तिर्यङ्मनुष्याणां देवानाञ्च शीतोष्णा । संमूर्छिमतिर्यग्मनुष्याणां मध्ये कस्यचिच्छीता कस्यचिदुष्णा कस्यचित्-शीतोष्णा च । नारकाणां प्रथमे पृथिवीत्रये प्रकृष्टोष्णा । चतुर्थ्या कचिन्नरके शीता क्वचिदुष्णा । एवं पञ्चम्याम् षष्ठयाम् सप्तम्यां च पृथिव्यां प्रकृष्टशीता । नारकाणां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीमां देवानां च प्रस्ताव से आकृष्ट अन्तिम उत्पत्ति होती है । इससे तीनों उत्पत्तियों की सूचना होती है । ये तीनों उत्पत्तियाँ अभिन्न एक वस्तु विषयक नहीं है, ऐसा होने से पुनरुक्ति दोष का प्रसंग आता है। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार पुद्गलों का ग्रहण जन्म कहलाता है। किस प्रकार के स्थान में पहलेपहल उत्पन्न होते हुए जीव शुक्र और शोणित का ग्रहण करते हैं, सम्मूर्च्छित करते हैं अथवा वैक्रियशरीर को ग्रहण करते हैं ? नारक और देव किस प्रकार के गुण वाले और विशेषता वाले स्थान में उत्पन्न होते हैं ? इस शंका का समाधान करने के लिए पूर्वोक्त जन्मों के विशिष्ट स्थान की प्ररूपणा करने के उद्देश्य से योनियों के स्वरूप का कथन किया जाता है संसारीजीवों के उपर्युक्त तीन प्रकार के जन्मों में नौ योनियाँ कही गई हैं । वे इस प्रकार हैं(१) सचित्त (२) अचित्त (३) सचित्ताचित्त (४) शीत (५) उष्ण (६) शीतोष्ण (७) संवृत (८) विवृत और (९) संवृतविवृत । इनमें से नारकों और देवों की अचित्त योनि होती है । गर्भज मनुष्यों और तिर्यचों की सचित्ताचित्त योनि होती है । सम्मूर्छिम मनुष्यों और तियेचों की तीनों प्रकार की योनि होती है किसी की सचित्त, किसी की अचित्त और किसी की सचित्ताचित्त गर्भज तिर्यचों और मनुष्यों की तथा देवों की शीतोष्ण योनि होती है। सम्मूर्छिम तिर्यचों और मनुष्यों में किसी की शीत, किसी की उष्ण और किसी की शीतोष्णयोनि होती है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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