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________________ श्रीकल्प सूत्रे कल्पमञ्जरी टीका ॥४०॥ कम्बला-तिरक्तकम्बलाभिधानाः चतस्रोऽभिषेकशिला वर्तन्ते, तासु यत्रैव अतिपाण्डुकम्बलशिला यत्रैव च अभिषेकसिंहासनं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तस्मिन् सिंहासने सर्वलोकसहायकं त्रिभुवननायकं स्वके अङ्कपर्यडू अध्यास्य पूर्वाभिमुखः संनिषण्णः ॥सू०६२॥ टीका--'तए ण से सके इत्यादि। ततः खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराजो नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वम्-पाक आगतैः स्वकस्वकरतिकरपर्वते निजनिजरतिकरगिरौ संहृतस्वकस्वर्दियानविमानः स्थापितनिजनिजऋद्धियानविमानः स्वकस्वकपरिवारपरिवृतैः निजनिजपरिजनपरिवेष्टितैः त्रिषष्टीन्द्रैः सार्द्ध-सह संपरिवृतः सम्यक् परिवेष्टितः सन् मेरुपर्वते यत्र यस्मिन्नेव स्थाने वलयाकारेण वर्तुलाकारण स्थितस्य-विद्यमानस्य चतुर्नवत्यधिकचतुःशतयोजनपरिमितविष्कम्भस्य चतुर्नवत्यधिकचतुःशतसंख्ययोजनपरिमितविस्तारवतः चतुर्थपण्डकवनस्य चतसषु दिक्षु श्वेतसुवर्णमय्यः अर्द्धचन्द्राकाराः पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरक्रमेण हैं। इन चारों में से जहाँ अतिपाण्डुकम्बलशिला थी और जहाँ अभिषेक-सिंहासन था, वहाँ (शक्र) आये। आकर वह उस सिंहासन पर समस्त लोक के सहायक और त्रिभुवन के नायक तीर्थकर भगवान् को अपनी गोदरूपी पलंग में विठला कर, पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बेठे ॥सू०६२॥ टोका का अर्थ-'तए णंइत्यादि। तदनन्तर शक्र देवेन्द्र देवराज नन्दीश्वर द्वीप में पहले से आये हुए, अपनेअपने रतिकर गिरिपर जिन्होंने अपनी-अपनी ऋद्धि और अपना-अपना परिवार छोड़ दिया था और जो अपने-अपने परिवार से वेष्टित थे ऐसे तिरसठ इन्द्रों के साथ, उनसे घिरे हुए, मेरु पर्वत के ऊपर जिस स्थान पर गोलाकार स्थित तथा चार सौ चौरानवे योजन विस्तार वाला पण्डक नामक चौथा वन है, उस वन की चारों दिशाओं में श्वेत सोने की बनी हुई, अर्द्धचन्द्राकार, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में શિલાઓ અભિષેક-શિલાઓ કહેવાય છે. જે સ્થાને અતિપાદુકંબળશિલા છે, અને જ્યાં અભિષેક સિંહાસન છે, ત્યાં દેવેન્દ્ર આવ્યાં, ત્યાં આવી પડીવાળી બેઠા પછી, ભગવાનને ખોળામાં લીધાં, ને પૂર્વ દિશા તરફ મેં કરી पोते स्थिर मासन यु (सू०६२) सानो अर्थ-'तपणत्याहित्यार ५७ हेवेन्द्र वराल नही दीपमा पसेथी आस, पातपाताना ति:२ પર્વત પર જેઓ પોતપોતાની ઋદ્ધિ અને પિતાના પરિવારને મૂકી ગયા હતા અને જેઓ પિતપતાના પરિવારની સાથે હતાં, એવાં ત્રેસઠ ઈન્દ્રોની સાથે, તેમનાથી વીંટળાયેલા, મેરુ પર્વતની ઉપર જે સ્થાન પર વર્તુળાકારે ઉભેલું તથા ચાર ચેરાણું એજનના વિસ્તારવાળું પંડેક નામનું ચોથું વન છે, તે વનની ચારે દિશાઓમાં વેત સુવર્ણની भगवज्जन्मोत्सव कतुकामस्य शक्रस्य तमादाय गमनम् ॥४०॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨
SR No.006382
Book TitleKalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages509
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size37 MB
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