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________________ श्रीकल्प यानविमानेन त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य उत्तरपूर्व दिग्भागेमा चतुरङ्गलमसम्पाप्ते धरणितले तत् दिव्यं यानविमानं स्थापयति, स्थापयित्वा यत्रैव भगवाँस्तीर्थकरः तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य विकृत्व आदक्षिणपदक्षिणं करोति, कृत्वा आलोके एव प्रणामं करोति, कृत्वा करतलपरिगृहीतं शिरस्याऽऽवत मस्तके अञ्जलि कृत्वा एवमवादीत-नमोऽस्तु नलु ते रत्नकुक्षिधारिके ! जगत्प्रदीप मञ्जरी दीपिके! सर्वजगन्मङ्गलस्य सर्वजीवचक्षुर्भूतस्य सर्व-जगजीव-वत्सलस्य हितकारक-मार्ग-देशिक-विभुवागृद्धि-प्रभो- टीका र्जिनस्य ज्ञानिनो नायकस्य बुद्धस्य बोधकस्य सर्वलोकनाथस्य निर्ममस्य प्रवर-कुल-ससुद्भवस्य जात्या क्षत्रियस्य कल्प सूत्रे ॥३३॥ भवन की उस दिव्य यानविमान से तीनवार दक्षिण से आरंभ करके प्रदक्षिणा की, और भगवान् तीर्थकर के जन्मभवन के उत्तरपूर्व-ईशान कोण-में पृथ्वीसे चार अंगुल की ऊँचाई पर अपने यान-विमान को ठहरा दिया। ठहरा कर जहां भगवान् तीर्थकर थे और तीर्थंकर की माता थी, वहां आये। आकर तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिण किया और दृष्टि पड़ते ही प्रणाम किया। प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर आवर्त एवं अंजलि करके इस प्रकार बोले-हे उदर में रत्न को धारण करने वाली ! हे जगत् के प्रदीप की जननी ! तुम्हें नमस्कार हो। क्यों कि तुम समस्त जगत् के हितकारी, प्राणीमात्र के लिए नेत्र के समान, अखिल संसारी जीवों के वत्सल, मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाले, विशाल वचन-ऋदि के स्वामी, जिन, ज्ञानी, नायक, बुद्ध, बोधक, सर्वलोक के नाथ, अनासक्त, श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, जाति से क्षत्रिय और लोक भगवज्ज न्मोत्सव PER कत्तुकामस्य शक्रस्य तमादाय गमनम् પિતાના દિવ્યથાન-વિમાનથી તીર્થકરના જન્મભવનના ઇશાનકેણમાં પૃથ્વીથી ચાર આંગળની ઉંચાઈએ પિતાનું વિમાન સ્થાપિત કર્યું આ કાર્ય પતાવીને, જ્યાં તીર્થકર ભગવાન અને તેની માતા હતાં ત્યાં આવી ત્રણ વાર પ્રદક્ષિણા કરી, ને તેમની દૃષ્ટિ પડે તેમ, ત્રણ વખત પ્રણામ કર્યા. પ્રણામ બાદ મસ્તક પર અંજલી કરી બેલ્યા “હે ઉઢરમાં રત્ન ધારણ કરવાવાળી, હે જગતના દીપકને પ્રગટ કરવાવાળી, તમને નમસ્કાર કરું છું; કેમકે સમસ્ત જગતના હિત કરવાવાળા, પ્રાણીમાત્રના નેત્ર સમાન, અખિલ સંસારના છને વત્સલસ્વરૂપ, મોક્ષમાર્ગના પ્રકાશક, વિશાલक्यन३५ी ऋद्धिना पाभी, न, शानी, नाय४, सुद्ध, माघ, साना नाथ, मनासत, श्रेखमा उत्पन्न, ज्ञातिथी ॥३३॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨
SR No.006382
Book TitleKalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages509
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size37 MB
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