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________________ श्रीकल्प. 922 कल्पमञ्जरी ॥३१२|| टीका भगवद वस्थितः, तथा-कांस्यपात्रमिव-कांस्यपात्रवत् मुक्ततोयः स्नेहवर्जितः, शङ्खइव-शङ्खवत् निरञ्जनःनिर्मलः, तथा जीवइव-जीववत् अप्रतिहतगतिः अकुण्ठितगतिः, जात्यकनकमिव-उत्तमसुवर्णवत् जातरूपः सुरूपसम्पन्नः, आदर्शफलकमिव-दर्पण फलकवत् प्रकटभावाप्रकाशितजीवाजोवादि सकलपदार्थः, कूर्मइत्र-कच्छपवत् गुप्तेन्द्रियः= वशीकृतेन्द्रियः, पुष्करपत्रमिव कमलपत्रवत् , निरुपलेपः स्वजनायभिष्वङ्गरहितः, गगनमिव-आकाशवत् , निरालम्बना कुलग्रामनगराधालम्बनवर्जितः। अनिल इव-वायुवत् निरालयःनिर्गृहः, चन्द्र इव-चन्द्रवत् सौम्यलेश्य: अनुपतापहेतुमनः परिणामधारक, मूर इव-मूर्यवत् दीप्ततेजा द्रव्यतः शरीरदीप्त्या भावतो ज्ञानेन देदीप्यमानः, सागर इव-समुद्रवत् गम्भीरः हर्षशोकादि कारणसंयोगेऽपि निर्विकारचित्तः, विहग इव-पक्षिवत् सर्वतो विभमुक्तः निर्बन्धनः, मन्दर इव=मन्दरपर्वतवत् अप्रकम्पः परोषहोपसर्गपवनैरचलित;, शारदजलमिव शरदृतुजलवत् कांसे के पात्र के समान स्नेह (राग) से रहित थे। शंख के समान निर्मल थे। जीव के समान अठितअबाध गतिवाले थे। उत्तम स्वर्ण के समान सुन्दर रूप थे। दर्पण-फलक के समान जीव-अजीव समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले थे। कछुवे के समान इन्द्रियों को वष करनेवाले थे। कमल के पत्ते के समान स्वजन आदि को आसक्ति से रहित थे। आकाश के समान कुल, ग्राम, नगर आदिका आलंबन नहीं लेते थे। पचन के समान घर रहित थे । चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यावाले अर्थात् क्रोधादिजन्यसन्तापसे रहित मानसिक परिणाम के धारक थे। सूर्य के समान दीप्ततेज थे। अर्थात् द्रव्य से शारीरिक दीप्ति से और भाव से ज्ञान से देदीप्यमान थे। सागर के समान गंभीर थे। हर्ष-शोक आदि के कारणों का संयोग होने पर भी विकार-विहीन चित्तवाले थे। पक्षीके समान सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त थे। मेरु शैल के समान परीषह और उपसर्ग रूपी पवन से चलायमान नहीं होते थे। शरदऋतु के जल के समान निर्मल चित्त थे। સ્નેહ (રાગ) વિનાના હતા. શંખના જેવાં નિર્મળ હતા. જીવના જેવાં અકુંઠિત અબાધ ગતિવાળા હતા. ઉત્તમ સુવર્ણ જેવા સુંદર રૂપવાળા હતા. દર્પણની જેમ જીવ-અજીવ આદિ સમસ્ત પદાર્થોને પ્રકાશિત કરનાર હતા. કાચબાની જેમ પિતાની ઇન્દ્રિયોને ગે પાવનાર-વશ કરનાર હતા. કમળનાં પાનની જેમ સ્વજન આદિની આસક્તિ વિનાના હતા આકાશની જેમ કુળ, ગામ, નગર આદિનું અવલંબન લેતાં નહીં. પવનની જેમ ગૃહ વિનાના હતા. ચન્દ્રમાની જેમ सौम्य वेश्यावा मेटोचाहिन्य सतपथी २हित मानसि परिणामना पा२४ ता सूर्य नामप्तते- વાળા હતા એટલે કે દ્રવ્યથી શારીરિક દીપ્તિથી અને ભાવથી જ્ઞાન વડે દેદીપ્યમાન હતા. સાગરના જેવા ગંભીર હતા. હર્ષ–શક આદિના કારણે સંયોગ થવા છતાં પણ નિવિકાર ચિત્તવાળા હતા. પક્ષીની જેમ બધી જાતનાં બંધનથી મુક્ત હતા. મેરૂ પર્વતની જેમ પરીષહ અને ઉપસર્ગ રૂપી પવનથી ચલાયમાન થતા નહી. શરદઋતુનાં वस्था वर्णनम् । |सू०९८॥ ॥३१२॥ પી શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨
SR No.006382
Book TitleKalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages509
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size37 MB
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