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________________ कल्प टीका-'तएणं समये भगवं' इत्यादि-तता-दीक्षाग्रहणानन्तरं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः इममेतपम्= पूर्वोक्तं स्वप्रतिज्ञातम् अभिग्रहम् अभिगृह्य-स्वीकृत्य व्युत्सृष्टकाया-त्यक्तशरीरशुश्रूषः, त्यक्तदेहः परिहृतशरीरमोहः, मुहूर्तशेषेचटिकाद्वयावशिष्टे दिवसे दिने, 'कुर्मार'-ग्राम-कुर्माराख्य-ग्राम, प्रस्थित विहारं कृतवान् । ततः खलु यावत् यावत्कालपर्यन्तम् , श्रीवर्धमानस्वामी नयनपथगामी दृश्यमान आसीत् , तावत्= तावत्कालपर्यन्तं नन्दिवर्धनप्रमुखाम्नन्दिवर्धनादयः, जनाः उन्मुखाः-श्रीवर्धमानावलोकार्थ तदभिमुखाः सन्तः, निजनिजलोचनपुटै स्व-स्व-नेत्रपुटैः प्रभुदर्शनामृतं श्रीवर्धमानस्वामिदर्शनरूपामृतं पिबन्तः सन्तः प्रहृष्यन्तः प्रमोदमाना आसन् अथ-तदनन्तरम् च प्रभु श्रीवर्धमानस्वामी यथा यथा येन येन प्रकारेण दृष्टिसरणितः= नेत्रपथतः, विप्रकृष्ट: दरो जानः तथा तथा तेन तेन प्रकारेण दरिद्राणां दीनानाम् इव सर्वेषां तत्र स्थितानां मञ्जरी ॥१५०॥ टीका टीका का अर्थ--'तए णं' इत्यादि । दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर श्रमण भगवान् महावीर पूर्वोक्त अभिग्रह को अंगीकार करके शरीर की शुश्रूषा के त्यागी हुए और देह संबंधी मोह से रहित हुए, जब अनुमान दो घड़ी दिन शेष था, तब 'कुर्मार' ग्राम की ओर विहार किये। उस समय, जितने समय तक श्रीवर्धमान स्वामी दिखाई देते रहे, उतने समय तक नन्दिवर्धन आदि जन भगवान् श्रीवर्धमान प्रभु को देखने के लिए उनकी ओर मुँह उठाए हुए नेत्र-पुटों से उनके दर्शनरूपी अमृत का पान करते रहे और प्रसन्न होते रहे; किन्तु बाद में श्रीवर्धमान स्वामी जैसे-जैसे दृष्टिपथ से दूर होते चले गये, वैसे-वैसे दीनों के समान वहाँ खड़े हुए सभी लोगों का वह उत्कृष्ट मा प्रभुविरहे नन्दिवर्धनादीनां विलापवर्णनम् । ॥सू०७९॥ st अर्थ-'तए ण त्याही. दीक्षा सीधा पछी म भावान महावीर माया प्रभारीना અભિગ્રહને અંગીકાર કરીને શરીરની સુશ્રુષાને ત્યાગી શરીર ઉપર મહ છે, જયારે બે ઘડી દિવસ माही २हो त्यारे "भार" गामनी त२३ १२ श्यो. જ્યાં સુધી નજર પહોંચતી રહી-જયાં સુધી શ્રી વર્ધમાન સ્વામી દષ્ટિગોચર રહ્યા ત્યાં સુધી નંદિવર્ધન વગેરે જેને ભગવાન શ્રી વર્ધમાન પ્રભુને જોવાને માટે તેમની તરફ મુખ ઊંચું કરીને નેત્ર-પુટોથી મીટ માંડી તેમના દર્શન રૂપી અમૃતનું પાન કરતા રહ્યા અને પ્રસન્ન થતાં રહ્યાં, પણ જેમ જેમ શ્રી વર્ધમાન સ્વામી દષ્ટિપથથી દૂર દૂર થતાં ગયાં તેમ તેમ દીન માણસની જેમ ત્યાં એઠા થએલા બધા લેને તે ઉત્કૃષ્ટ આનંદ વિહીન ॥१५॥ श्री ३९५ सूत्र:०२
SR No.006382
Book TitleKalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages509
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size37 MB
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