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________________ श्रीकल्प॥११॥ स्त्रे कल्पमञ्जरी बाला ममं पेमालुणो अम्मापिउणो कहिस्संति, ते णं मं उबद्दवसंकुलं विष्णाय मा खेयखिन्ना हवंतु-त्ति सिग्घं तं दुरासयं दिविसयं नमइउं तप्पिटमज्झासीणो एव पहू मूढगूढासयष्णू तप्पिटुवरि नियसरीरस्स अप्फारं भारं आरोवी। तेणं सो दुरासो देवो तारेण सरेण चिकरिय पुढवीतले निवडिओ। तए णं देवाणं जयज्झुणी सुरज्युणि समजणि । तए णं णयग्गीवो सो देवो खामियदेवाहिदेवो पत्तसम्मत्तो सयधामं पत्तो ॥मू०७०॥ ___छाया-ततः खलु भगवान महावीरः क्रमेण धवल-दल-विलस-द्वितीया-चन्द्र इव सौम्यकरैः सद्गुणनिकरैः गिरिकन्दरा-ऽऽलीनश्चम्पकपादप इव वयसा संवर्द्धते । एवं स भगवान् महावीरो मयूरपक्षकाकपक्षशोभिभिः सवयोभिः शिशुभिः सार्द्ध बालवयोऽनुरूपं गोपितस्वरूपं क्रीडति। एकदा देवलोके देवगणालङ्कृतायां सुधर्मायां सभायां समासीनःशुनासीरः सौधर्मेन्द्रः अनुपमगुणैर्वर्धमानस्य वर्धमानस्य प्रभोः पराक्रमं वर्णयितुमुपक्रमते, तं श्रुत्वा निशम्य सर्वे देवा देव्यश्च हर्षवशवि : संजाताः। श्रीका भगवतो वाल्यावस्थावर्ण नम्. मूल का अर्थ-'तए णं इत्यादि । तब क्रम से, शुक्ल पक्ष की द्वितीया का चन्द्र जैसे अपनी सौम्य किरणों से बढ़ता है उसी प्रकार भगवान् महावीर सदगुणों के समूह से, तथा जैसे पर्वत की गुफा में स्थित चम्पक-वृक्ष क्रम से बढ़ता है उसी प्रकार वय से, बढ़ने लगे। इस प्रकार भगवान महावीर मयूरपक्ष से सुशोभित चोटी से शोभायमान समवयस्क शिशुओं के साथ, अपने असली स्वरूप को गोपन करके, बाल्यावस्था के अनुरूप क्रीड़ा करने लगे। एक बार देवलोक में देव-समूह से अलंकृत सुधर्मा सभा में बैठे हुए इन्द्र सौधर्मेन्द्रने अनुपम गुणों से बढ़ते हुए वर्धमान प्रभु के पराक्रम का वर्णन करना आरंभ किया। उसे सुनकर और समझकर सभी देवों और देवियों का हृदय, हर्ष के वशीभूत होकर खिल गया। किन्तु उनमें से प्रभु के पराक्रम की ॥९ ॥ भूसने। मथ-'तए णं' त्याहि.भ शुस पक्षने। यद्रमा, दिन-प्रतिहिन सामामा वयत लय छ તેમ ભગવાન મહાવીર પણ, સદ્ગુણેમાં વૃદ્ધિ પામવા લાગ્યાં. જેમ પર્વતની ગુફામાં ઉગેલ ચંપક વૃક્ષ, કમે કમે - વિકાસ પામે છે, તેમ ભગવાન પણ વયથી વૃદ્ધિ પામવા લાગ્યાં. મેરની પાંખથી સુશોભિત ચેટલીવાલા સમાન વયના સુંદર મિત્રો સાથે, ભગવાન પિતાનું પરાક્રમ ગેપવી રાખીને, બાલ્યાવસ્થાને અનુરૂપ કીડાઓ અને રમત કરવા લાગ્યાં. શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૨
SR No.006382
Book TitleKalpsutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages509
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size37 MB
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