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________________ श्रीकल्पसूत्रे ॥६६॥ बहिर्वसतिरहितेषु ग्रामादिषु मध्ये कुत्रापि हेमन्ते ग्रीष्मे च निर्ग्रन्थानाम् एकं मासं निवासं कर्तुं कल्पते इति । तथा सप्राकाराणां ग्रामादीनां बहिर्भागे यदि वसतिर्भवेत्, तदा निर्ग्रन्थानामेकं मासं प्राकाराभ्यन्तरभागे एक मासं च प्राकाराद् बहिर्भागे इति मासद्वयं वस्तु कल्पते । तत्र यदा प्राकाराभ्यन्तरभागे वासस्तदा तत्रैव भिक्षा भिक्षितव्या यदा प्राकारबाह्यप्रदेशे वासस्तदा तत्रव भिक्षा भिक्षितव्येति । तदेतत्सूचयितुमाह - ' कप्पड़ निरगंथाणं गामंसि वा' इत्याद्य भिक्खायरियाए अत्तिए ' इति ॥०१०|| इत्थं निर्ग्रन्थानां मासकल्पमुक्त्वा सम्प्रति निर्ग्रन्थीनां तमाह के बाहर वस्ती न हो तो वहाँ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में साधु अधिक से अधिक एक मास तक ठहर सकते हैं । हाँ अगर ग्राम आदि के चारों ओर कोट हो और कोट के बाहर भी वस्ती हो तो साधु एक मास तक कोट के भीतर भाग में और एक मास तक बाहरी भाग में ठहर सकते हैं । इस प्रकार वहाँ दो मास तक रहना कल्पता है । जब कोट के भीतर भागमें निवास हो तो भीतर भाग में ही और बाहरी भाग में निवास हो तो बाहरी भाग में ही भिक्षा लेनी चाहिए । इस अर्थ को सूचित करने के लिए कहा है - " कप्पड़ निरगंथाणं गामंसि वा' इत्यादि ॥ म्र०१० || इस प्रकार साधुओं का मासकल्प कहकर साध्वियों का मासकल्प कहते हैं - ' कप्पइ निम्गवीणं ' इत्यादि । અને ગ્રીષ્મૠતુમાં, એક માસ સુધી, પેાતાના વસવાટ કરી શકે છે. આ પ્રમાણે ગામ જો કેાટ સહિત અને બહારની વસતિ સહિત દાય તે ત્યાં એ માસનું અર્થાત્ એક માસ અંદર અને એક માસ બાહુર નિવાસ કરવા કલ્પી શકે છે. આહાર પાણી જ્યાં વસવાટ હાય ત્યાં ના જ કલ્પી શકે. વસવાટના ક્ષેત્ર બહારના આહાર પાણી अहधी शडे नहि. भावो महेश सूत्र द्वारा करवामां आव्यो छे' nars निग्गंथाणं गामंसि वा' त्याहि (सू० १०) साधुयाना मासमुदय ह्या माह साध्वीयाना भासमुदय विषे सूचन वामां आवे छे. 'कप्पर निधीण' इत्यादि. શ્રી કલ્પ સૂત્ર ઃ ૦૧ कल्प मञ्जरी टीका ॥६६॥
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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