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श्रीकल्पमृत्रे ||३६||
टीका
'नो कप्पड़' इत्यादि -
निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा औदेशिकम् = एक मुनिमुद्दिश्य कृतम् अशनादिक चतुर्विधमाहारं वस्त्रं वा कम्बलं वापतग्रहं = पात्रं वा पादप्रोञ्छनं प्रमाजिंकां वा पीठफलकशय्यासंस्तारक, तत्र - पीठम् = ' चौकी ' इति भाषा - प्रसिद्धम्, फलकः = पट्टिका -' पाट' इति भाषामसिद्धा, शय्या - शेतेऽस्यामिति शय्या शरीरप्रमाणा, संस्तारकः= अर्द्धतृतीयहस्तात्मकः पीठादीनां समाहारद्वन्द्वः, तद् वा; औषध भैषज्यम् - औषधम् = एकद्रव्यनिर्मितम्, भषज्यम् = अनेक - द्रव्यनिर्मितम् उभयोः समाहारद्वन्द्वः, तद्वा प्रतिग्रहीतुं = स्वीकर्तुं वा परिभोक्तम् = उपभोक्तुं वा न कल्पते ||३||
अथ तृतीयं शय्यातरपिण्ड-कल्पमाख्यातुमाह-
मूलम् -नो कप्पर निग्गंथाणं वा निम्गंधीणं वा सिज्जायरपिंडं पडिगाहित्तए वा परिभुंजित्तए वा
॥ सू०४ ॥
उपभोग करना ॥ मू०३||
टीका का अर्थ - किसी एक मुनि के उद्देश्य से बनाई गई वस्तु औदेशिक कहलाती है । अशन, पान, खाद्य, ( मेवा - आदि) और स्वाद्य ( लवंग आदि ) यह चार प्रकार का आहार, वस्त्र, कम्बल, पात्र प्रमार्जनी, पीठ (चौकी), फलक (पाट ) शय्या ( शरीर के बराबर ), संस्तारक (अढाइ हाथ लम्बा विस्तर) एक द्रव्य की बनी औषध और अनेक द्रव्यों की बनी भेषज, यह सब औदेशिक हों तो ग्रहण करना या उपभोग में लाना साधुओं और साध्वियों को नहीं कल्पता ||३||
तीसरे कल्प शय्यातर पिण्ड का वर्णन करते हैं— 'नो कप्पड़' इत्यादि ' ।
डर, गोछो, मलेट-पाट, शय्या, संथारी औषध लेषण विगेरे ये नहि. (सू०3)
टीना अर्थ-ई मे भुनिने उद्देशीने मनावेसी चीन 'मोहेशिवाय नेव-मशन पान माघ, स्वाद्य या यार प्रहारना आहार हवाय छे, पडा, स, पात्र, गोणे, जालेट-पाट, शय्या-सुवा भाटे शरीर प्रभाष वसाह, संथारो - अढी हाथ प्रभाष वस्त्राहि औषध ( ४ द्रव्यनी अनेसी ), लेष ( मने द्रव्योनी जनेसी ) साधु-साध्वीने सेवा ये नहि ( सू०3 )
त्रील ४थ-शय्यतरपिंड-तु वन रे छे 'नो कप्पइ' इत्याहि.
શ્રી કલ્પ સૂત્ર : ૦૧
淇淇淇冰
कल्प
मञ्जरी
टीका
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