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________________ श्रीकल्प वृन्द-दुन्दुभि-धुरीण-ध्वनिना मनुष्यलोकं सदिगन्तं पूरयन्तं ज्वलद-नल-दह्यमान-निरुपमान-कालागुरु-प्रवरकुन्दु- हजार रुक्क-तुरुष्क-प्रमुखधूप-दुर्निरूप-मघमघायमान-गन्धं विराजमान-विविध-शुभ-चिहं नित्यालोकं विगतशोकं नानाविध-सरस-केलिकला-कुतूहल-संलग्न-सुरवरा-सना-भिरामं सकल-मुरवर-विमान-ललामम् अकृत-सुकृत-दुर्लभ कल्पतरं कृत-मुकृत-सुलभतरं पुण्डरीकाभिधानं देवविमानं पश्यति ॥सू० २६॥ मञ्जरी टीका-'तओ पुण सा तरुणारुणे'-त्यादि । ततः क्षीरसागरस्वमदर्शनानन्तरं पुन: द्वादशे स्वप्ने टीका सा-त्रिशला देवविमानं पश्यति, तत्र कीदृशं देवविमानम् ? इत्याह-तरुणतरारुण-मण्डल-दीप्यमानं-तरुणतरः ॥४५३॥ करने वाली, देव-समूह की भेरियों की मनोहर ध्वनि से दिशाओं के छोर तक मनुष्यलोक को पूरित कर रहा था। उसमें जलती हुई अग्निमें जलाये जाने वाले अनुपम काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुक्क तथा तुरुष्क (लोबान) आदि धूपों की अनिर्वचनीय एवं मघमघाती हुई गंध व्याप्त थी। उसमें नाना प्रकार के शुभ चिह्न मुशोभित हो रहे थे। वह निरन्तर प्रकाशवाला तथा शोक से रहित (हर्षजनक) था। विविध प्रकार की सरसक्रीड़ा-कलाओं के कुतूहल में मग्न देवों के आसनों से शोभायमान था। देवों के समस्त विमानों में । सुन्दर था। वह पुण्यहीनों के लिए अत्यन्त दुर्लभ तथा पुण्यवानों के लिए अत्यन्त सुलभ था। ॥ २६॥ टीका का अर्थ-'तओ पुण सा तरुणारुण' इत्यादि । क्षीरसागर का स्वम देखने के अनन्तर बारहवें स्वप्न में त्रिशला देवी ने देवविमान देखा। वह देवविमान कैसा था ? सो बतलाते हैं ___ वह अत्यन्त तरुण अर्थात् दोपहर के सूर्य-मंडल के समान देदीप्यमान था । अनेक प्रकार की बड़ी देवविमान का वर्णनम्. શુભ ચિન્હ પણ અંકિત કરવામાં આવ્યાં હતાં. તે નિરંતર પ્રકાશવાળું અને આનંદદાયક હતું. વિવિધ પ્રકારની ક્રીડા અને કલાઓની મેજમાં દેવો મગ્ન થયાં હતાં. આવાં હર્ષજનક દૃશ્યથી પણ આ વિમાન શેલી રહ્યું હતું. આવું વિમાન પુણ્યવતેને માટે જ, સજીત થયેલું હોય છે. હીણપુને તે આને पर वास ५९९ gole 45 ५ छ. (२०२६) जाना मथ-'तओ पुण सा तरुणारुण.' त्याहि. क्षीरसागरनुस् नया पछी मारमा स्नमा ત્રિશલા દેવીએ દેવતાનું વિમાન જોયું. તે દેવવિમાન કેવું હતું, તે બતાવે છે તે અત્યન્ત તરુણ એટલે કે મધ્યાહ્નના સૂર્ય-મંડળના જેવું તેજસ્વી હતું. અનેક પ્રકારની મોટી મોટી ॥४५३॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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