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________________ कल्पमञ्जरीटीका तत्र-सलिलबिन्दुः जलकणः, कुन्दं पुष्पविशेषः, इन्दुः चन्द्रः, तुषार हिमं, गोक्षीरं गोदुग्धं, हारः मुक्ताDome हारः दकरज: मूक्ष्मतरजलबिन्दुः तद्वत् पाण्डुरतरं श्वेततरं, तथा-रमणीय-प्रेक्षणीय-स्थिर-महणतर-करतलं, तत्र-रमणीये=सुन्दरे, प्रेक्षणीये-दर्शनीये, स्थिरे मसूणतरे अतिचिक्कणे च करतले हस्ततले यस्य तं, परिपुष्टश्रीकल्प मुश्लिष्ट-विशिष्ट-कुटिल-तीक्ष्ण-दंष्ट्रा-विडम्बित-मुख-परिपुष्टाः स्थूलाः, सुश्लिष्टाः अन्तररहिताः-मिलिताः, सूत्रे ॥४१॥ विशिष्टाः उत्तमाः कुटिलाः बक्राः तीक्ष्णाश्च या दंष्ट्रास्ताभिः विडम्वितंयुक्तं मुखं यस्य तम्, तथा-विमलकमल-कोमल-ललित-लोहित-दशन-वसनं-विमलं स्वच्छं यत् कमलं तद्वत् कोमले मृदुले ललिते-सुन्दरे लोहितेरक्ते दशनवसने ओष्ठौ यस्य तम्, तथा-जपाकुसुम-पलाशा-लक्तक-रक्तकमलदल-मृदुल-लल-लम्ब-लालितलोल-रसनं, तत्र-जपाकुसुमं जवापुष्पं पलाश पलाशपुष्पं, यद्वा-जपाकुसुमपलाश-जपापुष्पपत्रम्, अलक्तका 'अलता' इति भाषाप्रसिद्धश्च, तद्वद् रक्ता कमलदल-मृदुला कमलपत्रवत्कोमला ललन्ती चलन्ती लम्बा दीर्घा लालिता लालां प्राप्ता लोला-चञ्चला रसना-जिहा यस्य तम्, तथा-धगधगितिज्वलद-नला न्तराल-मूषा-लसदा-वर्तमाना-मल-कनक-शकल-वर्तुलविमल-चपला-विडम्बि-नयनं, तत्र-धगधगिति अतिशयितं सिंहस्वमवर्णनम्. चन्द्रमा, हिम, गाय के दूध, मुक्ताहार तथा सूक्ष्म जलकण के समान अन्यन्त श्वेत वर्ण का था। उसके दोनों पंजे रमणीय थे, दर्शनीय थे, स्थिर थे और खूब चिकने थे। स्थूल, परस्पर सटी हुई, उत्तम, टेढ़ी और तीखी दाढों से युक्त उसका मुख था। उसके होठ निर्मल कमल के समान कोमल, मनोहर और लाल रंग के थे। जीभ जपा के फूल तथा पलाश के फूल अथवा जपा के फूल और पत्र के समान तथा महावर [अलता] के समान लाल, कमल की पांखडी के समान कोमल, चंचल, लम्बी लार से युक्त और चपल थी। दोनों नेत्र धधकती हुई आग के मध्य में स्थित मूषा अर्थात् स्वर्ण को गलाने के साधन मिट्टी के पात्र में सुशो ॥४१॥ જળકના જેવા અત્યન્ત વેત રંગને હતે. તેનાં બન્ને પંજા રમણીય, દર્શનીય, સ્થિર અને ઘણાજ સુંવાળા હતા. સ્થળ, એક બીજી સાથે જોડાયેલી, ઉત્તમ, વાંકી, અને તીણી દાઢવાળું મેં હતું. તેના હેઠ નિર્મળ કમળ જેવાં કમળ, મનહર અને લાલ રંગના હતા. જીભ જપાનાં ફૂલ તથા પલાશનાં ફૂલ અથવા જપાનાં ફૂલ અને પાનના જેવી તથા મહાવર (અલતા)ના જેવી લાલ, કમળની પાંખડી જેવી કે મળ, ચંચળ, લાંબી, લાળવાળી, અને ચપળ હતી. બન્ને આંખો સળગતી આગની વચ્ચે રહેલ મૂષા એટલે કે સેનાને ગાળવાના માટીના પાત્રમાં સુંદર શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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