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________________ जा श्रीकल्प सूत्रे ॥३५३॥ कल्पमञ्जरी टीका भगवन्तं तत्र गतम् इह गतः, पश्यतु मां भगवान् तत्र गत इह गतमिति कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखः संनिषण्णः ॥०१०॥ ____टीका-'तए णं सा' इत्यादि । ततः खलु सा देवानन्दा ब्राह्मणी गजादिचतुर्दशानां महास्वमानां फलं श्रुत्वा निशम्य हृद्यवधार्य हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता-हृष्टा चासौ तुष्टा च हृष्टतुष्टा-अतिसन्तुष्टा, चित्तमानन्दितं यस्याः सा चित्तानन्दिता-प्रमुदितचित्ता, हृष्टतुष्टा चासौ चित्तानन्दिता चेति तथाभूता सती तं गर्भ सुखं सुखेन परिवहति । अथ च=देवानन्दायाः कुक्षौ भगवतः समागमनानन्तरम् इमं केवलकल्पं सम्पूर्ण जम्बूद्वीपंमध्यजम्बूद्वीपनामकं द्वीपम् अवधिना अवधिज्ञानेन आभोगयन् आभोगयन्=पुनःपुनरवलोकयन् शक्रेन्द्रो देवेन्द्रो देवरानः श्रमणं मुक्ति को प्राप्त करने के इच्छुक हैं। उस स्थान पर रहे हुए भगवान् को यहीं से मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखें ! इस प्रकार कह कर श्रमण भगवान महावीर को (शकेन्द्र) ने वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके वह उत्तम सिंहासन पर पूर्वदिशाकी ओर मुख करके बैठ गये ॥मू० १०॥ टीका का अर्थ-'तए णं सा' इत्यादि । तब वह देवानन्दा ब्राह्मणो हाथी आदि के चौदह महास्वमों के फल को सुनकर और अन्तःकरण में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुई-अत्यन्त सन्तोष को प्राप्त हुई। उसका चित्त आनन्दित हुआ। वह सुख-पूर्वक गर्भ को वहन करने लगी। इधर देवानन्दा के उदर में भगवान् का आगमन हो जाने के पश्चात् सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अवधिज्ञान से पुनः-पुनः देखते हुए देवों के इन्द्र, देवों के राजा शक्रेन्द्र ने श्रमण भगवान् महावीर को ब्राह्मणकुंडग्राम પૂર્વના તીર્થકરેએ કરેલ છે. અને જે મુક્તિને પ્રાપ્ત કરવાના ઇચ્છુક છે. અહિં રહીને હે ભગવાન! ત્યાં (ગર્ભમાં) રહેલા આપને વંદન નમસ્કાર કરું છું. ત્યાં રહેલા ભગવાન અહીં રહેલ મારી બાજુ કૃપા દૃષ્ટિ કરી જુઓ. આ પ્રમાણે કહીને શહેન્દ્ર શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદના નમસ્કાર કરીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરી ઉત્તમ સિંહાસને બેઠાં (સૂ૦૧૦) जानी अथ-'तए णं सा' त्याहि. भाता पानहाने यौ। २१ ebii माह, तमाश्री मान साथै સુખપૂર્વક ગર્ભવહન કરતાં હતાં. અહિં પણ કેન્દ્ર, પિતાનું અસન ચલાયમાન થયેલું જોઈ, અવધિજ્ઞાનને ઉપગ મૂક્યો. આ અવધિજ્ઞાનની શક્તિ, આ ખા જંબુદ્વીપને આવરી લેતી હતી. આ શક્તિ દ્વારા, ભગવાન મહાવીરને, દેવાનંદાની કુક્ષીમાં અવતરેલાં જે તે વિસ્મય પામે. शक्रेन्द्रकृत-भगवत्स्तुतिः। स ॥३५३॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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