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________________ कल्पमञ्जरी टीका दशाङ्गोक्तानां स्थूलपाणातिपातविरमणाद्यतिथिसंविभागान्तानां व्रतानां समाहारो द्वादशवतं तत् समुपेयुषी धृत वती, तथा-धर्मधारिणी शीलादिधर्मधारिणी, धर्मस्वमदर्शिनीधर्मविषयकस्वमदर्शिनी तथा-धर्माऽऽराधनस्वश्रीकल्पना कर्तव्यमानिनी-धर्माराधनमेव-धर्मसेवनमेव स्वकर्तव्यं मन्यत इत्येवंशीला, तथा-उभयकुलोज्ज्वलकारिणी-पितृसूत्रे कुलपतिकुलप्रकाशकारिणी, तथा-विकथाऽपहारिणी-विकथात्यागिनी, सुकथानुरागिणी-सुकथानुरागवती, तथा॥३३७|| लब्धार्था-लब्धः पाप्तः स्वतः अर्थः श्रुतार्थों यया सा, पृष्टार्था-पृष्टः अर्थः परस्परतो यया सा, गृहीतार्थागृहीतोऽर्थः पराभिमायग्रहणतो यया सा, तत एव-विनिश्चितार्था-विशेषण निश्चितो निर्णीतोऽर्थों यया सा, अत एव अभिगतार्था-अभितः समन्ताद् गतः पाप्तोऽर्थों यया सा तथाभूता च त्रिशलाऽऽसीत् ।। मू०४॥ मूलम् तस्सि रायम्मि उरोभवा पया इव पया पालयंतम्मि मुहं सुहेण दिणाणि अइबाहयंतम्मि जणे आणंदयंतो आसिणमासो आगमी । किसीवला बहला सस्ससंपत्ती दंसं दंसं पहरिसी। वावारजीविणो य सम्मं वावारपवित्तीए आणंदसिंधृच्छलंततरलतरतरंगेसु निमज्जी। सिद्धत्थरायावि पयासत्थं कयत्थं विलोइय चंदं जलनिही विव मोदीअ ॥ सू०४॥ प्राणातिपातविरमण से लगाकर अतिथिसंविभाग तक के व्रतों को धारण किया था। वह शील आदि धर्म को धारण करने वाली तथा धर्म का ही स्वन देखने वाली थी। धर्म की आराधना करने को ही अपना कर्तव्य समझती थी। पिता और पति के कुल को दीपाने वाली थी। विकथात्यागिनी और सुकथाअनुरागिणी थी। 'लब्धार्था'-उन्होंने श्रुत का अर्थ स्वयं प्राप्त किया था, 'पृष्टार्था'-परस्पर में इष्ट अर्थ को पूछा था, 'गृहीतार्था'-दूसरे के अभिप्राय को समझकर अर्थ ग्रहण किया था, अत एव-वह 'विनिश्चितार्थानिर्णीत अर्थवाली थी, और 'अधिगतार्था'-पूरी तरह अर्थ को समझने वाली थी ॥ मू०४॥ મહારાણી એ બધી ક્રિયાઓ જાણતી હતી. તેમણે ‘ઉપાસક દશાંગ સૂત્રમાં કહેલા સ્થલપ્રાણાતિપાત વિરમણથી શરૂ કરીને અતિથિસંવિભાગ સુધીના બારે વ્રત ધારણ કર્યા હતાં, તે શીલ આદિ ધર્મને ધારણ કરનારી તથા ધર્મનું જ સ્વપ્ન જોનાર હતી. તે ધર્મની આરાધના કરવાનું જ પિતાનું કર્તવ્ય સમજતી હતી, પિતા અને પતિના शुजन नारी ती. विस्थानी त्यास ४२नारी भने सुस्था प्रत्ये मनुरागवाणी ती. "लब्धार्था" पाते श्रुतना म पास या हतो, "पृष्टार्था" १२सपरसमा अपूछया हतो, 'गृहीतार्था" wlanaनो अभिप्राय सभ ने मथ अहम योता. तेथील "विनिश्चितार्था" निश्चित अर्थ नारी ती, भने “अधिगतार्था' संपूशत अर्थाने समानारी ती. (सू०४) त्रिशलाराज्ञोवर्णनम् (મામા જાની ભાર તે કરવાની જર ન ॥३३७॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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