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श्रीकल्प
मुत्रे ॥३०॥
कल्पमञ्जरी टीका
प्रकारा आधया मानसिकव्यथाः, व्याधयः ज्वरादयो रोगाश्च तैः ग्रस्तानां पीडितानां प्राणिनां तापकलापगिरिभेदनकुलिश-तापकलापः जन्मजरामरणादिजनितसन्तापसमूह एव गिरिः पर्वतः, तस्य भेदने विदारणे कुलिशंवज्रस्वरूपम् अर्हद्भाषितं तीर्थकरोक्तं धर्म विना अस्मिन् अपारे=दुस्तीर्ये असारे निस्तत्त्वे संसारे अन्यत् किमपि तीर्थकरपोक्ताद् धर्मादतिरिक्तं किंचिदपि नालं= न समर्थ भवति, त्राणाय वा शरणाय वेति । मनागपि अल्पमपि। भृशम् अत्यन्तम् । मुधैव-पृथैव । जीवघना जीवाश्च ते घनाश्चेति । क्षमा प्रदान करें और मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि 'आज पीछे ऐसा नहीं करूँगा' इस अकरण भाव से मैं उसका त्याग करता हूँ।..
(१५) आज पीछे मैं षड्जीवनिकाय के समस्त जीवों को समभाव से देखता हूँ। मुझ समदर्शी के लिए सभी जीव बन्धु के समान हैं।
(१६) रूप, यौवन, धन, कनक और प्रियजनों के समागम आंधी से क्षुब्ध हुए सागर की लहरों के समान चंचल हैं, बिजली की चमक के समान चपल हैं और कुशकी नोंक पर स्थित ओस के बिंदु की भाँति अस्थिर हैं।
(१७) जन्म, जरा, मरण तथा नाना प्रकारकी आधियाँ (मानसिक व्यथाओं) और व्याधियों (ज्वर आदि रोगों) से पीड़ित प्राणियों के, जन्म जरा मरण आदि से उत्पन्न हुए संताप के समूह रूपी पर्वत का विदारण करने में कुलिश (वज्र) के समान तीर्थकर भगवान् के द्वारा कथित धर्म के अतिरिक्त त्राण करने या शरण देने के लिए अन्य कोई समर्थ नहीं है। ४३छु. वे पछी मे रीश नहीमा ५४२८५ (४२वाना) माथी हुना त्या ४३ छु:
(૧૫) હવે પછી હું છ જવનિકાયના સમસ્ત જીને સમભાવથી જોઈશ. મારા જેવાં સમદશી"
महावीरस्य एनन्दनामकः 0 पश्चविंशतितमो
भवः।
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॥३०॥
(૧૬) રૂપ, યૌવન, ધન, કનક, અને પ્રિયજનેને સમાગમ આંધીથી ક્ષુબ્ધ થયેલાં સાગરની લહેરાના જે ચપળ છે, અને કુશની અણી પર રહેલાં ઝાકળના બિન્દુની જેમ અસ્થિર છે.
(१७) सन्म, २२, भर तथा विविध प्रश्नी साधियो (भानसि व्यथामा) अने व्याधिया (१२ આદિ રોગ ) વડે પીડિત પ્રાણીઓના જન્મ, જરા, મરણ વગેરેથી ઉત્પન્ન થયેલા સંતાપના સમૂહરૂપી પર્વતનું વિદારણ કરવામાં કુલિશ (વજા) નાં જેવાં તીર્થકર ભગવાનના દ્વારા કથિત ધર્મના સિવાય ત્રાણુ કરવાં કે શરણ દેવા માટે બીજું કઈ શક્તિમાન નથી.
શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧