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________________ मए A कल्प श्रीकल्प सूत्रे ॥२६५॥ मञ्जरी टीका कामधेनुरिव कामं मपूरयति । किंबहुना ? इमां धर्मशिरोमणि दयां पालयन् सुहृदयो जीवपथिकश्चातुरन्तसंसारकान्तारे चतुरशीतिलक्षजीवयोनिदुष्पथं व्यतिक्रम्य सकलप्राणिस्पृहणीयं मनुष्यभवसुस्थानं पामोति । तत्र मुक्तिमहिला दयागुणसमलङ्कृतं तं जीवम् आकर्षति, तेन स शाश्वतसुखभागी भवति ।। मू०३१॥ टीका-'तए ण से' इत्यादि । ततः खलु स सहस्रारकल्पस्थितो नयसारजीवो देव आयुभवस्थितिक्षयेण तस्मात् सहस्रारकल्पनामकात् देवलोकात् च्युत्वा चतुर्विंशतितमे भवे अस्मिन्नेव दक्षिण एव भरतक्षेत्रे शाल्वदेशे रथपुरनगरे प्रियमित्रस्य राज्ञो विमलाया देव्याः याः कुक्षौ पुत्रतया उपपन्नः। व्यतीतेषु साधिकेषु नवसु मासेषु गर्भाद् विनिष्क्रान्तः। तस्य शिशोरम्बापितृभ्यां विमल इति नाम कृतम् । क्रमेण उन्मुक्तफल देती हैं। कल्पलता के समान सब कामनाओं को पूर्ण करती है, कामधेनु के समान सभी कुछ देती है। अधिक क्या, धर्मों में शिरोमणि इस दया को पालता हुआ शुद्ध अन्तःकरण वाला जीवरूपी पथिक, चार गति रूप संसार-कान्तार में चौरासी लाख जीवयोनि रूप दुर्गम मार्ग को लांघ कर, समस्त प्राणियों द्वारा इच्छा करने योग्य मनुष्य-भव रूपी सुन्दर स्थान को प्राप्त करता है। मनुष्यभव में दयागुण से विभूषित उस जीव को मुक्तिरूपी महिला अपनी ओर आकर्षित करती है। इस कारण वह शाश्वत सुख का भागी हो जाता है ॥५०३१ ।। टीका का अर्थ-'तए णं से इत्यादि । तदनन्तर सहस्रार स्वर्ग में स्थित नयसार का जीव, देवसंबंधी आयु, भव और स्थितिका क्षय होने से सहस्रार देवलोक से चव कर चौवीसवें भव में इसी दक्षिण भरतक्षेत्र में, शाल्व नामक देश में, रथपुर नगर में राजा प्रियमित्र की विमला देवी की कुंख में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। कुछ दिन अधिक नौ मास व्यतीत होने पर उसका जन्म हुआ। माता-पिता ने उस शिशु का 'विमल' नाम स्थापित किया। કુળ દેનાર એકજ સાધન દયા” છે. ક૯પતરુ સમાન ઈચ્છિત ફળ દેનારી છે. માગ્યા મેહ વરસાવનાર કામધેનું સમાન છે, દયાધમી દુર્ગતિએને નાશ કરી, અણમોલ એવા માનવ ભવને પ્રાપ્ત કરે છે. માનવભવમાં દયાથી વિભૂષિત થયેલ છવ, મેક્ષનગરીમાં સુખેથી પહોંચી જાય છે. તે કારણે ‘દયા’ને શાશ્વત સુખ આપનારી કહેવામાં આવી છે. (સૂ૦૩૧) Astो मय-'तए णं से प्रत्याहि.साभाथी 24वी क्षिय भरतम मावेश नामना देशमा २५२ નગરના પ્રિય મિત્ર રાજાની રાણીને પેટે નયસારને જીવ અવતર્યો. માતા-પિતાએ તેનું નામ “વિમલ' રાખ્યું. યુવાવસ્થા महावीरस्य विमलनामकः चतुर्विंशतिमतमो भवः। २६५|| શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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