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________________ श्रीकल्प कल्पमञ्जरी टीका ॥१९॥ महावीरस्य इति विश्वकोषात् । अथवा-चत्वारो दानादयोऽन्ता अवयवा यस्य, यद्वा-चत्वारो दानादयः अन्ताः-स्वरूपाणि यस्य, 'अन्तोऽवयवे स्वरूपे च' इति हैमः, स चतुरन्तः, स एव चातुरन्तः, चातुरन्त एव चक्रं जन्मजरामरणोच्छेदकत्वेन चक्रतुल्यत्वात् , वरं च तच्चातुरन्तचक्रं वरचातुरन्तचक्रं, वरपदेन राजचक्रापेक्षयाऽस्य श्रेष्ठत्वं व्यज्यते लोकद्वयसुखसाधकत्वात् , धर्म एव वरचातुरन्तचक्रं, धर्मवरचातुरन्तचक्र, तादृशस्य धर्मातिरिक्तस्यासंभवात् , अत एव सौगतादिधर्माभासनिरासः, तेषां ताचिकार्थप्रतिपादकत्वाभावेन श्रेष्ठत्वाभावात् । धर्मवरचातुरन्तचक्रेण वर्तितुं शीलं यस्य स तथा । चक्रवर्तिपदेन पट्खण्डाधिपतिसादृश्यं व्यज्यते, तथाहि-चत्वारः अथवा-दान आदि चार जिसके अन्त-अवयव-विभाग हैं वह भी 'चतुरन्त' कहलाता है। अथवा दान आदि चार जिसके अन्त-स्वरूप हैं, वह 'चतुरन्त है। चतुरन्त ही चातुरन्त कहलाता है। जन्म, जरा और मरण का विनाशक होने के कारण चक्र के समान जो हो वह चक्र कहा जाता है। इस प्रकार चार का अन्त करनेवाला, चार से रमणीय, चार अवयव वाला और चार स्वरूप वाला जो चक्र है, उसको 'चातुरन्तचक्र' कहते हैं । यह चातुरन्तचक्र वर है अर्थात् इहलोक और परलोकमें सुख का कारण होने से राजचक्र आदि की अपेक्षा श्रेष्ठ है। अत एव उसको 'वरचातुरन्तचक्र' कहा है। यह 'वरचातुरन्तचक्र' धर्म ही हो सकता है, धर्म के अतिरिक्त अन्य नहीं हो सकता, इस कारण उसे 'धर्मवरचातुरन्तचक्र' कहा है । इस कथन से बौद्ध आदि धर्माभासों-मिथ्याधर्मों का निषेध किया गया है, क्यों कि वे वास्तविक तत्व का प्रतिपादन नहीं करते और इस कारण उनमें श्रेष्ठता नहीं है। 'धर्मवरचातुरन्तचक्र' से वर्तन करना जिनका स्वभाव है, उन भगवान् को 'धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती' कहते हैं। એકાકારરૂપે પરિણમી રહ્યાં હતા, જેનામા ઉપરનાં ચતુષ્ટયે સ્વાભાવિક ગુણ તરીકે તરી આવતા હતાં. જેથી પણ तेमा 'यातुरन्त' पातi. જન્મ-જરા-મરણને જે દ્વારા નાશ થાય છે તેને “ચક' કહે છે. આ પ્રમાણે ચાર ગતિને અંત કરવાવાળા, ચાર કષાયોથી રહિત અને ચાર અવયવ ( ક્ષાવિકભાવ-ક્ષાયિકચારિત્ર-કેવલજ્ઞાન-કેવલદશન) વાલા હેવાથી પ્રભુને “ચક્રવર્તી' તરીકે સંબોધવામાં આવે છે. “ચાતુરન્તચક્રવતી' તો કદાચ વાગજાલીયા અને મિથ્યાવાદીઓ પણ ઘણી વખત બની શકે છે, એટલે ભગવાનને “ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવત્તી ' કહ્યાં છે. “ ધમ' શબ્દ લગાડવાથી જગતમાં વર્તતા મિથ્યા ધર્મો નહિ પરંતુ मरीचि नामकः तृतीयो भवः। ||१९०॥ શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧
SR No.006381
Book TitleKalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size41 MB
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