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नन्दीसूत्रे हे आयुष्यमन् ! 'तेणं' तत्र-षड्जीवनिकाय विषये ८, तत्र वा समवसरणे स्थितेन भगवता एवमाख्यातम् ९, अथवा-श्रुतं मम हे आयुष्मन् ! वर्तते, यतस्तेन भगवता एवमाख्यातम् १०, एवमादयस्तं तमर्थमधिकृत्य गमा भवन्ति ।
अभिधानवशात्पुनरेवं गमा भवन्ति- सुयं मे आउसंतेणं ' 'आउस सुयं मे' 'मे सुयं आउसं० ' इत्यादि.। अर्थभेदेन पदानां तथा तथा संयोजने अभिधानगमा कहा७।अथवा-"तेणं" की छाया 'तत्र' के रूप में जब की जावेगी तब ऐसा अर्थ बोध होगा कि-"श्रुतं मया आयुष्मन् तत्र-षडजीवनिकायविषये", हे आयुष्यमन् जम्बू । मैंने सुना है जो भगवान् ने षड्जीवनिकाय के विषय में ऐसा कहा है ८. अथवा-"तत्र-समवसरणे भगवता एवमाख्यातम् ” मैंने सुना है जो समवसरण में स्थित हुए भगवान ने ऐसा कहा है ९ । अथवा “मे” की छाया तृतीया विभक्ति "मया" के रूप में न करके जब "मै" की छाया "मम" के रूप में की जावेगी तब ऐसा अर्थबोध होगा-"श्रुतं मम आयुष्मन् ! वर्तते यतस्तेन भगवता एवमाख्यातम्" उन भगवान् ने जो ऐसा कहा है वह मैंने सुन ही रक्खा है" १०।
इस तरह भिन्न २ अर्थ को लेकर इन पदों से जो बोध होगा वह अभिधेय के वश से हुए गम जानने चाहिये। ___अभिधान अर्थात् नाम के वश से जोगम होते हैं वे इस प्रकार हैंख्यातम् " मेवे। म माय थरी सटो -" मायुध्मन! यू! न्यारे भगपान माम युं त्यारे में सामन्युडतु (७). अथवा "तेणं" नी छाया "तत्र" ना ३पे न्यारे १५२राय त्यारे सव। मर्थ माय थशे " श्रुतं मया आयुष्मन् तत्र-षडू जीव निकाय विषये" आयुष्मान् ४ ! में सामन्यु छ , मा. पान छ नियनविषयमा २ प्रमाणे ४यु छ(८). मथवा “ समवसरणे भगवता एवमाख्यातम् " में सामन्यु छ समवसरमा २२स लगवाने याम ॐघुछे' (e). मथ। “मे” नी छाया तृतीय विमति "मया'' ना ३१न ४२i ने “मे” नी छाय॥ “मम' न॥ ३३ ४२॥य तो 241 प्रमाणे 24 माघ थरी " श्रुतं मम आयुष्मन्! वर्तते यतस्तेन भगवता एवमाख्यातम्" मे सपाने એવું કહ્યું છે તે મેં સાંભળી જ રાખ્યું છે (૧૦).
આ રીતે ભિન્ન ભિન્ન અર્થને લીધે એ પદેથી જે બંધ થશે તે અભિધેયના વશથી થયેલ ગમ જાણવા જોઈએ.
અભિધાનને કારણે જે ગમ થાય છે તે આ પ્રમાણે છે
શ્રી નન્દી સૂત્ર