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________________ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया-परिपालितश्च दीर्घः पर्यायो वाचना तथा दत्ता । . निष्पादिताश्च शिष्याः, श्रेयो मे आत्मनः कर्तुम् ॥१॥ इति गाथार्थः ॥२४९॥ क्रमयोग वर्णयितुं संलेखनाभेदान् प्रदर्शयतिमूलम्-बारसेव उ वासाँई, संलेहुकोसिया भवे । संवच्छरमज्झिमिया, छम्मासा ये जहन्निया ॥२५॥ छाया-द्वादशैव तु वर्षाणि, संलेखना उत्कृष्टा भवति । संवत्सरं मध्यमिका, षण्मासांश्च जघन्यिका ॥२५०॥ टीका-'बारसेव उ वासाई' इत्यादिसंलेखना द्वादशैव वर्षाणि उत्कृष्टा भवति । संलेखना च-द्रव्यतः शरीरस्य, " परिपालिओ य दीहो परियाओ वायणा तहा दिण्णा। णिप्फा इया य सीसा सेयं मे अप्पणो काउं ॥ १ ॥" अर्थात्-मुनिपर्याय मैंने बहुत समय तक पालितकी है । तथा मैं दीक्षित शिष्योंको भी वाचना दे चुका हूं एवं यथायोग्य शिष्य संपत्ति भी मेरी वर्धित हो चुकी है। अतः अब मेरा कर्तव्य है कि मैं अपना भी कुछ कर लूं-इसी में मेरी भलाई है। अर्थात् सबसे अलहदा रह कर संलेखना धारण करने में ही मेरा हित है। ऐसा साधुको विचार कर पिछली अवस्थामें संलेखना धारण करना चाहिये ॥ २४९ ॥ ___अब क्रमयोग को वर्णन करने के लिये सूत्रकार संलेखनाके भेदोंको प्रकट करते हैं-'वारसेवउ' इत्यादि। __ अन्वयार्थ (बारसवासाई एव उक्कोसिया संलेहा भवे-बादश "परिपालिओ यदीहो परियाओ वायणा तहा दिण्णा णि 'फोइयाय सीसा सेयं मे अप्पणो काउं॥१॥"मात मुनि पर्याय में धारा समय सुधी पास ४२ छ तथाई દિક્ષિત શિષ્યને પણ વાચના દઈ ચૂક છું અને યથાગ્ય શિષ્ય સંપત્તિ પણ મેળવી લીધેલ છે. આથી હવે મારૂં કર્તવ્ય છે કે, હું મારું કાંઈક કરી લઉં-આમાં જ મારી ભલાઈ છે. અર્થાત્ બધાથી અલાયદા રહીને સંલેખના ધારણ કરવામાં મારું હિત છે. આ પ્રમાણે સાધુએ વિચાર કરીને પાછલી અવસ્થામાં સંલેખના भार ४२वीनधये ॥ २४८ ॥ હવે ક્રમ રોગનું વર્ણન કરવા માટે સૂત્રકાર સંલેખનાના ભેદને પ્રગટ अरे .-" वारसेवउ" त्यादि। भ-क्याथ-बारसवासाई एव उक्कोसिया संलेहा भवे-द्वादशवर्षाणि एव उत्तराध्ययन सूत्र :४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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