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________________ ९२८ उत्तराध्ययनसूत्रे चौदह सागरोपमकी है । तथा (जहन्नेणं - जघन्येन) जघन्यस्थिति ( दससागरोवमा - दशसागरोपमाणि) दश सागरोपमकी है ॥२२६॥ (महासुक्केमहाशुक्रे) महाशुक नामक देवलोक में (उक्कोसेण सत्तरससागराहं ठिई भवे - उत्कर्षेण सप्तदश सागरान् स्थिति भवति) उत्कृष्ट स्थिति सत्रह १७ सागरोपमकी है तथा ( जहन्नेणं चोद्दससागरोवमा - जघन्येन चतुर्दशसागरोपमाणि) जघन्य स्थिति चौदह सागरोपमकी है || २२७|| (सहस्सारम्मि - सहस्रारे) सहस्रार नामके देवलोक में (उक्को सेण ठिई - उत्कर्षेण स्थितिः ) उत्कृष्ट स्थिति ( अट्ठारससागरा भवे- अष्टादश सागरान् भवति) अठारह सागरोपमकी है। तथा (जहन्नेणं सतरह सागरोवमाजघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि ) जघन्य से सत्रह १७ सागरोपम की स्थिति है ॥ २२८ ॥ अन्वयार्थ - ( आणयम्मि - आनते) आनत नामके नवमें देवलोकमें (उक्को सेण- उत्कर्षेण) उत्कृष्ट (ठिई-स्थितिः) स्थिति ( उणवीसं सागराएकोनविंशतिं सागरान् ) उन्नीस १९ सागरोपमकी है । तथा (जहन्नेणंजघन्य स्थिति ( अट्ठारस सागरोवमा - अष्टादशसागरोपमाणि) अठारह १८ सागरोपमकी है ॥ १२९ ॥ (पाणयम्मि - प्राणते) प्राणत नामक दशवें देवलोकमे (उक्कोसेण ठिई- उत्कर्षेण स्थितिः) उत्कृष्ट स्थिति (वीसं साग यौः सागरोपमनी छे तथा जहन्नेणं - जघन्येन धन्य स्थिति दससागरोवमाणिदश सागरोपमाणि स सागरापभनी छे. ॥ २२६ ॥ मन्वयार्थ – महासुक्के - महाशुक्रे भड्डाशु नामना हेवखेोभां उक्कोसेण सत्तरससागराई ठिई भवे- उत्कर्षेण सप्तसागरान् स्थितिर्भवति उत्ष्ट स्थिति सात सागशयभनी छे तथा जहन्नेणं चोहससागरोवमा - जघन्येन चतुर्दशसागरोपमाणि જધન્ય સ્થિતિ ચૌદ સાગરોપમની છે. ! ૨૨૭ ॥ मन्वयार्थ-सहस्सारम्मि - सहस्रारे सहस्रार नामना देवलेोभां उक्कोसेण ठिईउत्कर्षेण स्थितिः उत्ॣष्ट स्थिति अट्ठारससागरा भवे - अष्टादश सागरान् भवति अढार सागरोपमनी तथा जहन्नेणं सत्तरससागरोवमा - जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि જઘન્ય સ્થિતિ સત્તર સાગરોપમની છે. ॥ ૨૨૮૫ अन्वयार्थ - आणयम्मि-आनते मानत नामना नवभा हेवा मां उकासेणउत्कर्षेण द्धृष्ट ठिई-स्थितिः स्थिति उणवीस सागरा - एकोनविंशति सागरान् येोगणीस सागरोषभनी तथा जहन्नेणं - जघन्येन धन्य स्थिति अट्ठारस सागरोवमा - अष्टादश सागरापमाणि मदार सागरोपमनी छे. ॥ २२८ ॥ मन्वयार्थ - पाणयम्मि- प्राणते प्राशुत नामना हसभा देवसेोभां उक्कोसेण ठिई- उत्कर्षेण स्थितिः उत्हृष्ट स्थिति वीस सागराई - विंशति सागरान् वीस साग उत्तराध्ययन सूत्र : ४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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