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________________ ६७६ उत्तराध्ययनसूत्रे तस्मात् किं कर्तव्यमित्याहमूलम् -भिक्खियव्वं न केयव्वं, भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा । कयविकओ महादोसो, भिक्खार्वती सुहावही ॥१५॥ छाया-भिक्षितव्यं न क्रेतव्यं, भिक्षुणा भिक्षावृत्तिना। क्रयविक्रय महादोषं, भिक्षावृत्तिः सुखावहा ॥१५॥ टीका-'भिक्खियव्वं' इत्यादि भिक्षावृत्तिना भिक्षुणा भिक्षितव्यं याचितव्यम् , 'भिक्खवत्तिणा' इति हेतुगर्भविशेषणम् , यतो भिक्षेत्र भिक्षावृत्तिस्तस्माद् भिक्षुणा भिक्षितव्यमेवेत्यर्थः। न क्रेतव्यम्-भिक्षुणा क्रयणं न कर्तव्यम् , उपलक्षणत्वाद् विक्रयणमपि न कर्तव्यम् , तत्र हेतुमाह-'कयविक्कओ महादोसो' इति क्रयविक्रय महादोष-क्रयश्च विक्रयश्चेति समाहारः, महान् दोषो यत्रेति महादोषम् , क्रयविक्रयकरणे संयमविराधनारूपो जिनाज्ञाविराधनारूपश्च महान्दोषो भवतीत्यर्थः। 'कयविक्कओ' इत्यत्रार्षत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः। भिक्षावृत्तावेव साधुनाप्रवर्तितव्यमित्याशयेन भिक्षावृत्तिगुणमाहदमनेवाला) भिक्षु जैसा शास्त्र में वर्णित हुआ है वैसा नहीं होता है। अर्थात् वह साधु नहीं कहलाता है ॥ १४ ॥ तो फिर क्या करना चाहिये ? सो कहते हैं-'भिक्खियव्वं' इत्यादि । अन्वयार्थ-(भिक्खवत्तिणा भिक्खुणा-भिक्षावृत्तिना भिक्षुणा) भिक्षावृत्ति करनेवाले भिक्षुको (भिक्खियव्वं-भिक्षितव्यम् ) भिक्षावृत्ति ही करना चाहिये । (न केयव्वं-न क्रेतव्यम् ) लेनदेनका व्यवहार नहीं करना चाहिये। (कयविकओमहादोसो-क्रयविक्रयं महादोषम् ) क्योंकि क्रयविक्रय करने में महादोष हैं। अर्थात्-क्रयविक्रय करनेसे साधुको एक तो संयमकी विराधनारूप दोष का भागी बनना पड़ता है दूसरे जिनाज्ञा की विराधना का भी दोष लगता है । अतः इन कामों को छोड़कर उसे भिक्षावृत्ति શાસ્ત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે તેવા હોતા નથી અર્થાત્ તે સાધુ કહેવાતા નથી. ૧૪ तो पथी शुं २jने ? ते ४ही समान छ-" भिक्खियव्वं" त्याह भन्क्याथ-भिक्खवत्तिणा भिक्खुणा-भिक्षावृत्तिना भिक्षुणा भिक्षावृत्ति ४२वा लिखुणे भिक्खियव्वं-भिक्षितव्यं भिक्षावृत्ति ॥ ४२वी नये. न केयव्वं-न क्रेतव्यं गुहेशुने। पडेपार न ४२वाले थे. कयविक्कओ महादोसोक्रयविक्रय महादोषम् भ है, यविध्य ४२पाथी साधुन मे तो सयभनी વિરાધનારૂપ દેષના ભાગી થવું પડે છે. બીજું જનઆજ્ઞાની વિરાધનાને પણ દેષ લાગે છે. આથી આવા કાને છેડીને તેણે ભિક્ષાવૃત્તિ જ કરવી જોઈએ उत्त२॥ध्ययन सूत्र:४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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