SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययनसूत्रे - __अन्यच्चमूलम्-रूवाणुवाए णं परिग्गहेणे, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे य कहिं सुहंसें, संभोगकाले ये अतित्तिलाभे ॥२८ छाया-रूपाऽनुपाते खलु परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे । व्यये वियोगे च क्व मुखं तस्य, सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभ।॥२८॥ टीका-'रूवाणुवाए णं' इत्यादि रूपानुपाते-रूपेऽनुपातः-अनुगमनम्-अनुरागो रूपानुपातस्तस्मिन् सति 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, परिग्रहेण रूपविषये मूत्मिकेन हेतुना उत्पादने रूपबद्वस्तुन उपार्जने, तथा रक्षणसभियोगे-रक्षणं च सनियोगश्चेति रक्षगसन्नियोगं तस्मिन् , प्रयोजनको जिस किसी भी उपायसे सिद्ध करने में लग जाता है। उस समय यह उपाय कर्तव्य है या अकर्तव्य है इस बात को नहीं गिनता है। इस प्रकार की प्रवृत्ति में यह जोव उस मनोज्ञ रूप की आशा के पीछे पड़कर कितनेक चराचर प्राणियों को मारता है शारीरिक एवं मानसिक कष्ट पहुंचाता है । अतः इससे यही बात सिद्ध होती है कि, राग ही सब अनर्थों का तथा हिंसादिक जनित आस्रवोंका हेतु है ॥२७॥ और भी कहते है-- 'रूवाणु वाएण' इत्यादि। अन्वयार्थ-( रूवाणुवाए-रूपानुवाते ) रूप में अनुराग होने पर यह जीव (परिग्गहेग-परिग्रहेण ) रूप में सर्वप्रथम मूछारूप परिग्रह से बंध जाता है । फिर (उप्पायणे रक्खणसन्निओगे-उत्पादने रक्षणसन्नियोगे ) वह उस रूपवाली वस्तु के स्नेह से उस वस्तु के उपार्जन જનને કઈ પણ ઉપાયથી સિદ્ધ કરવાના કામમાં લાગી જાય છે. એ વખતે આ ઉપાય કર્તવ્ય છે કે, અકર્તવ્ય છે. આ પ્રકારને વિચાર કરતું નથી અને તે મને જ્ઞરૂપની આશાની પાછળ પડીને એ જીવ કેટલાંક ચરાચર પ્રાણીને મારે છે તેમજ કેટલાકને શારીરિક અને માનસિક કષ્ટ પહોંચાડે છે. આ કારણે આથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે, રાગ જ સઘળા અનર્થોને તથા હિંસાદિક આસને હેતુ છે. રણા qणी ५५ ४ छ—“ रूवाणु वाएण" या! मन्वयार्थ:-रूवाणुवाए-रूपानुपाते ३५मां अनुराग उत्पन्न वाथी से ०१ परिगहेण-परिग्रहेण ३५मा सप्रथम भू२३५ परियाथी मा नय छ पछी उप्पायणे रक्खणसन्निओगे-उत्पादने रक्षणसन्नियोगे ते मे ३५१णी परतुनी નેહથી એ વસ્તુનું ઉપાર્જન કરવામાં લાગી જાય છે. અને એનું ઉપાર્જન उत्तराध्ययन सूत्र :४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy