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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३२ प्रमादस्थानवर्णनम् तादृशसहायाप्राप्तौ यत् कर्त्तव्यं तदाहमूलम्-ने वा लभिजा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ सेमं वा। एगो वि पावाईं विवजयंतो, विहरेज कामेसु असज्जमाणो॥५॥ छाया-नवा लभेत निपुणं सहायं, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एकोऽपि पापानि विवजयन् , विहरेत् कामेषु असजन् ॥ ५॥ टीका--'न वा लभिज्जा' इत्यादि । यदि निपुणं-कृत्याकृत्यविवेकज्ञानयुक्तं गुणाऽधिकं-गुणैर्ज्ञानादिभिरधिकम्उत्कृष्टं वा=अथवा । गुणतः ज्ञानादिगुणानाश्रित्य, समं-तुल्यं, सहायं-शिष्यं, न आदि से रहित हो। ___भावार्थ-जो साधु यह चाहता है कि मुझे ज्ञानादिकों की निर्विघ्न प्राप्ति हो, तो उसके लिये सूत्रकार यह कह रहे हैं कि वह साधु कितना ही तपस्वी क्यों न हो यदि वह एपणीय आहार नहीं लेता है, सहायक उसके ज्ञानी नहीं हैं, निवासस्थान उसका स्त्रीपशुपण्डक आदिसे रहित नहीं है तो चित्तमें सदा विप्लवता बनी रहने के कारण उसका चारित्र यथावत् नहों पल सकता है॥४॥ ऐसे गुणवानकी प्राप्ति नहीं होने पर साधुको क्या करना चाहिये यह सूत्रकार कहते हैं-'नवालभिज्जा' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-यदि (निउणं-निपुणम् ) कृत्य और अकृत्यके विवेक ज्ञानसे युक्त तथा (गुणाहियं-गुणाधिकम् ) ज्ञानादिक गुणोंसे उत्कृष्ट अथवा (गुणओ समंवा-गुणतः समं वा) ज्ञानादिक गुणोंसे अपने बराરહિત હોય. ભાવાર્થ–જે સાધુ એવું ચાહે છે કે, મને જ્ઞાનાદિકેની નિર્વિદન પ્રાપ્તિ થાય, તો એને માટે સૂત્રકાર એવું બતાવે છે કે, એ સાધુ ગમે તેવા તપસ્વી કેમ ન હોય, કદાચ તે એષણીય આહારને લેતા ન હોય, એના સહાયક જ્ઞાન ન હોય, નિવાસસ્થાન એનું સ્ત્રી, પશુ, પંડક, આદિથી રહિત ન હોય, આથી ચિત્તમાં સદા વિપ્લવતા બની રહેવાના કારણે તેનું ચારિત્ર યથાવત્ પળી शतु नथी. ॥४॥ એવા ગુણવાનની પ્રાપ્તિ ન થવાના કારણે સાધુએ શું કરવું જોઈએ તે सूत्रा२ मतावे छे. “ नवा लमिज्जा" त्याह! मन्वयार्थ-ने निउणं-निपुणम् इत्य अत्यना विज्ञानयी युत तथा गुणाहियं-गुणाधिकम् ज्ञाना िगुथा उत्कृष्ट ३२५ गुणओ समंधा-गुणतः समंवा ज्ञानाभा याताना सरासरना सहायं-सहायम् शिष्य न लमिजा-न लमेन उत्तराध्ययन सूत्र:४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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