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________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. ६९ संवेगादि त्रिसप्ततिपदार्थनामानि १९१ विमल के बलालोकेन सकललोकालोकमवलोकयन्ति मुच्यन्ते सकलकर्मेभ्यो मुक्ता भवन्ति, ततश्च परिनिर्वान्ति=सकलकर्मादावानलोपशमेन, शीतलीभूता भवन्ति । अतएव सर्वदुःखानां = शरीरमानसानाम्, अन्तम् - आत्यन्तिकविनाशं कुर्वन्ति, सिद्धिगतिनामधेय स्थान प्राप्त्या अन्याबाधसुखभाजो भवन्तीत्यर्थः ॥ अनुसार उचित कालमें विधिपूर्वक पालन करके (बहवे जीवा सिझंतिबहवः जीवाः सिध्यन्ति) अनेक जीव समस्त कार्यों को कर लेनेके कारण सिद्ध होते हैं, (घुज्झति - बुध्यन्ते) विमल केवलज्ञानरूप आलोक से सकल लोक और अलोकको देखते हैं, (मुच्यंति-मुच्यन्ते) सकल कर्मों से सर्वथा मुक्त होते हैं परिनिव्वायंति-परिनिर्वान्ति तथा सकल कर्मरूप दावानलके इकदम बुझ जाने के कारण शीतलीभूत बन जाते हैं, (सव्वदुःखाणमंत करेति - सर्वदुःखाना मंतं कुर्वन्ति ) अत एव मानसिक दुःखौका आत्यन्तिक विनाश कर देने के कारण सिद्धि गति नामक स्थानकी प्राप्तिसे अव्याबाध सुखके भोक्ता बन जाते हैं। भावार्थ - सुधर्मा स्वामी श्री जंबूस्वामीको इस अध्ययनके प्रारंभ करनेका उद्देश समझाते हुए कह रहे हैं कि आयुष्मन् । मैने यह अध्ययन भगवान् श्री वर्धमानस्वामी के मुखारविन्दसे सुना है। उन्होंने ऐसा प्रति पादन किया है कि जो मुनि इस अध्ययनमें प्रतिपादित संवेग आदि अकर्मतापर्यन्त के गुणोंको सम्यक् श्रद्धासे, प्रतीति से, रुचि आदिसे, सुनेगा पालन करेगा, योगत्रयकी सावधानीपूर्वक इनको अपने जीवनमें उतारेगा बहवे जीवा सिज्वंति - बहवः जीवाः सिध्यंतिरम व समस्त डायने री बेवाना अरसिद्ध थाय छे. बुज्झति - बुध्यन्तेविभण ठेवणज्ञान ३५ ग्यालथी सहज बोउ भने मा बेोउने लुभे छे. मुच्चति - मुच्यन्ते सम्म भोथी सर्वथा भुत भने छे, परिनिव्वायंति - परिनिर्वान्ति तथा सम्म ३य हावानणने हम मुञववाने अर शीतजभूत मनी लय छे, सव्वदुःखाणमंत करे ति - सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति तमेव ते शारीरि અને માનસિક દુઃખાના સમૂળગે વિનાશ કરી દેવાના કારણે સિદ્ધગતિ નામના સ્થાનની પ્રાપ્તિથી અવ્યાખાધ સુખના ભાક્તા ખની જાય છે. અધ્યયન ભાવા ——શ્રી સુધર્માંસ્વામી શ્રી જમ્બુસ્વામીને આ અધ્યયનને પ્રારંભ કરવાના ઉદ્દેશ સમજાવતાં કહી રહ્યા છે કે, આયુષ્મન ! મેં આ ભગવાન શ્રી વર્ધમાનસ્વામીના મુખારવિંદથી સાંભળેલ છે. એમણે એવું પ્રતિપાદન કરેલ છે કે, જે મુનિ આ અધ્યયનમાં પ્રતિપાતિ સ ંવેગ આદિ અકभता पर्यंतना गुणाने सभ्य श्रद्धाथी, प्रतीतिथी, इन्थि माहिथी, सांभणशे, પાલન કરશે, ચેાગાત્રયની સાવધાનપૂર્વક આને પેાતાના જીવનમાં ઉતારશે તે उत्तराध्ययन सूत्र : ४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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