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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम् सम्यङ्मार्गश्च निनप्रणीतधर्म एवेति नवमः प्रश्नः ९। तस्यैव सन्मार्गत्व ख्यापनाय महोदक वेगनिवारणविषये तत्रैव धर्मे दृढतोत्पादनाय संसाररूप समुद्रपारगमनविषये दशमः प्रश्नः। अथ यदि जिनप्रणीतधर्मएव सम्यङ्मार्गस्तर्हि किमन्येऽपि न तथा बदन्तीत्याशङ्कय तेषामज्ञत्वख्यापनार्थ तमोविघटनविषये एकादशः प्रश्नः ११ । एवमपि किमनेन सम्यङ्मार्गेण मोक्षरूप स्थानप्राप्तः संभावनाऽस्ति? इति शङ्कानिरासाय स्थानविषयेद्वादशः प्रश्नः १२ । एवं द्वादशानां प्रश्नानां समन्वयो बोध्यः ॥८४॥ को स्वाभिमत मोक्षरूप पद की प्राप्ति नहीं हा सकती है इसलिये सम्यक मार्ग के विषय में “कुप्पहा” इत्यादि से अष्टमप्रश्न किया गया है ॥८॥ वह सम्यक मार्ग जिन प्रणीत धर्म को ही हो सकता है अन्य नहीं इस विषय स्पष्ट करने के लिये 'महाउदगवेगेणं' इत्यादि से नवम प्रश्न किया गया है।९। जिनप्रणीतधर्म में ही सन्मार्गता है यह ख्यापन करने के लिये तथा उसी में महोदक वेग को निवारण करने की शक्ति है इस बात को बताने के लिये तथा उसी धर्म में दृढता धारण करनी चाहिये-क्यों कि वही संसाररूप समुद्र से पार कराने में शक्त है इन बात को पुष्ट करने के लिये यह 'अण्णवंसि' इत्यादि से दशमा प्रश्न किया गया है।१०। 'अंधयारे' इत्यादि से ग्यारहवां प्रश्न यह स्पष्ट करता है कि-जिन प्रणीत धर्म ही एक सम्यक मार्ग है परंतु अन्य तीर्थिक जन इस विषय को जो नहीं मानते है, सो उनकी यह अज्ञानता है। उनका यह अज्ञान रूप तम इसी मार्ग के आश्रयण करने से नष्ट हो सकता है ।११। प्राप्ति ५४ ४ती नथी. माथी सभ्य३ भागना विषयमा “कुप्पहा" त्यातिथी આઠમો પ્રશ્ન કરેલ છે. માટે તે સમ્યક્ માર્ગ અને પ્રણીત ધમ જ હોઈ શકે છે. भी नही मा विषयने २५०८ ४२५॥ माटे "महा उदगवेगेग" त्याथी नभ। પ્રશ્ન કરેલ છે. અા જીન પ્રણીત ધર્મમાં જ સન્માતા છે આની સંપૂર્ણ સમજુતિ માટે તથા એમાં જ મહાદક વેગનું નિવારણ કરવાની શકિત છે આ વાતને બતાવવા માટે એક જ ધર્મમાં દઢતા ધારણ કરવી જોઈએ કેમકે, તે સંસાર સમુદ્રથી પાર ४२वामा शतिशाणी छे मा वातने पुष्ट ४२१। माटे ! "अग्णवंसि" त्याहिथी सभी प्रश्न ४२वामा मावेस छ. ॥१०॥ “अंधयारे" त्याहिथी मयारमा प्रश्न એ સ્પષ્ટ કરે કરે છે કે, જીનપ્રણીત ધર્મ જે એક સમ્યક્ માગે છે. પરંતુ અન્ય તીથિક જન જેઓ આ વિષયને માનતા નથી તે એમની અજ્ઞાનતા છે. એમનું આ અજ્ઞાન રૂપ તમ (અંધારૂ) આજ માગને આશ્રય કરવાથી નષ્ટ થઈ શકે છે. ૧૧ उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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