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________________ ९५० उत्तराध्ययनसूत्रे महोदकवेगस्य क्षुभितपातालकलशवातेरितप्रवृद्धजलमहास्रोतो वेगस्य गतिः= गमनं न विद्यते । महोदकप्रवाहस्तत्र गन्तुं न शन्कातीति निरुपद्रवः स महा. द्वीप इति भावः ॥६६॥ केशी पाह-- मूलम्-दीवे' ये इंइ के वुत्ते केसी गोयममबवी। तओ के सिं बुवंतं तुं, गोयमो इणमब्बकी ॥६७॥ छाया--द्वीपश्च इति क उक्तः ?, केशी गौतममब्रवीत् । ततः केशिनं ब्रुवन्त तु, गौतम इदमब्रवीत् ॥६७॥ टीका--'दीवे य' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ॥६७॥ गौतमः प्राह-- मूलम्-जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मों दीवों पईहा य, गई सरणमुत्तमं ॥६॥ छाया--जरामरणवेगेन, वाह्यमानानां प्राणिनाम् ।। धर्मों द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ॥६८॥ टीका-- 'जरामरणवेगेणं' इत्यादि । हे भदन्त ! जरामरणवेगेन-जरामरणरूपमहोदकपवाहेण-बाह्यमानानांउदगवेगस्स गई तत्थ न विजइ-महाउदकवेगस्य गतिस्तत्र न विद्यते) वेगशाली प्रवाह की गति वहां नहीं है। अर्थात् वह महाद्वीपरूप स्थान बिलकुल निरुपद्रव है ॥६६॥ जब गौतमस्वामी ने इस प्रकार कहा तब केशीश्रमण के चित्त में यह बात जगी कि ऐसा वह द्वीप क्या है ? अतः उन्होंने पूछा-'दीवे य' इत्यादि । हे गौतम ! वह द्वीप ऐसा कौनसा है ? ! तब गौतमने कहा--॥६७॥ क्या कहा सो कहते है--जरामरणवेगेणं' इत्यादि । अन्वयार्थ (जरामरण वेगेणं घुज्झमाणाण पाणिणं-जरामरणवेगेन वाह्यગતી નથી. અથૉત્ એ મહાદ્વીપરૂપ સ્થાન બિલકુલ ઉપદ્રવ રહિત છે. દાદા જ્યારે ગૌતમ સ્વામીએ આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે કેશી શ્રમણના ચિત્તમાં એવી વાત भी है, मेवे से दीप शुछ १ माथी तभणे ५७यु:- "दिवे य" त्याहि ! હે ગૌતમ! એ દ્વીપ એ કર્યો છે? ત્યારે તમે કહ્યું--૬ળા ४ तेने ४ थे--"जरामरणवेगेणं" त्या! अन्याय-जरामरणवेगेणं बुज्झमाणाणपाणिणं-जरामरणवेगेन वाघमाननां उत्तराध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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