SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 818
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया-धिगस्तु त्वां (ते) यशस्कामिन् !, यस्त्वं जीवितकारणात् । वान्तमिच्छसि आपातुं, यस्ते मरणं भवेत् ॥४३॥ टीका-'धिरत्थु' इत्यादि-- कामयतेबाच्छति तच्छील कामी, यशसः संयमस्य कीर्तेकामी यशस्कामी, तत्संबुद्धौ हे यशस्कामिन् ! यद्वा-अकारच्छेदात् हे अयशस्कामिन् हे असंयमापयशोऽर्थिन् ! त्वां धिगस्तु, निन्द्योऽसि त्वमित्यर्थः । 'ते' इति द्वितीयार्थ पष्ठी। यद्वा-'ते' इति षष्ठयन्तमेव, तत्र “पौरुषम्" इत्यस्य शेषः, धिनित्यने और भो--'धिरत्थु' इत्यादि । अन्वयार्थे--(जसोकामी-यशस्कामिन् ) संयम अथवा कीर्ति की कामनावाले हे रथनेमे ! ते (घिरत्यु-ते धिकअस्तु) तुमको धिक्कार हो। (जो तं-यस्त्वम् ) जो तुम (जीविय कारणा-जीवितकारणात ) असंयमित जीवित के सुख के निमित्त (वतं-वान्तम्) भगवान् नेमिनाथ द्वारा परित्यक्त होने की वजह से वान्त जैसी मुझे (आवेडे-आपातुम् ) सेवित करने की (इच्छसि-इच्छसि) चाहना कर रहे हो । इसकी अपेक्षा तो (ते-ते) तुम्हारा (मरणं सेयं-मरणं श्रयः) मरना ही अच्छा है। "ते जसो कामो” यहाँ अकार का प्रश्लेष करने से "तेऽयशस्का. मिन्" ऐसा पद बन जाता है। तब असंयम एवं अपयश की कामना करने वाले तेरे लिये धिक्कार हो ऐसा अर्थ हो जाता है। अथवा "ते" इसको द्वितीया विभक्ति के स्थान पर न मानकर षष्ठी विभक्ति के स्थानपर ही रक्खा जाय तय "ते पौरुषम्" ऐसा संबंध लगाना ३२ ५५--"धिरत्यु" त्या भन्या-जसा कामी यशस्कामिन् सम अथ अतिनी आमनाin २थमि! ते घिरत्यु-ते घिअस्तु म वि२ छ. जो तं-यस्त्वम् २ तु जीविय कारणा-जीवित कारणात् असायभित पनना सुमना निमित्त वंत-गान्तम् जापान नभिनाय साभा माल वायी टी वी भने आवे-आपातुम् सेवन ४२वानी तभी इच्छिसि-इच्छसि ॥ ४॥ २॥ छ। माश लव ४२ता ते-ते तमा३ मरणं सेय-मरणं श्रेय: भरी उत्तम छे. "तेजसो कामी" मी २४२ ५ ४२पाथी "तेऽयशस्कामिन्" मेयु પદ બની જાય છે. ત્યારે અસંયમ અને અપયશની કામના કરવાવાળા એવા તને ધિકાર . એ અર્થ થઇ જાય છે. અથવા “તે આને બીજી વિભક્તિના સ્થાન 3५२ भानता छी विनतना स्थान ७५२ ०४ २रामपामा मावत "ते पौरुषम्" उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy