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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. २२ नेमिनाथचरितनिरूपणम् सुदुर्लभ = सुदुष्प्रापम् । ततः पश्चात् भुक्तभोगिनौ-भुक्ता भोगाः भुक्तभोगास्ते सन्ति ययोस्तौ तथा - आसे वितशब्दादिकामभोगौ आवां जिनमार्ग=जिनोक्तं चारित्रलक्षणं मोक्षमार्ग चरिष्यावः = सेविध्याव हे ||३८|| एवं रथनेमिना प्राक्ता सा राजीमती साध्वी यदकरोत्तदुच्यते-मूलम् -- दट्टूण रहने मिं तैं, भग्गुज्जोयपरांइयं । ८०१ राई मेई असंभंती, अपणं संवेरे तहिं ॥ ३९ ॥ छाया -- दृष्ट्वा रथनेमिं तं भग्नोधोगपराजितम् । राजीमती असंभ्रान्ता, आत्मानं संवृणोति तत्र ||३९|| टीका -- 'हूण' इत्यादि । राजीमती साध्वी भग्नोद्योगपराजितं =भग्नोद्योगः - भग्नः = नष्टः उद्योगः= 'एहि' इत्यादि । । अन्वयार्थ - हे सुन्दरि ! (एहि एहि ) आओ (भोए भुंजिमो - भोगान् भुञ्जीवहि ) हम तुम दोनों विषय भोगों को भोगें । देखो (खु - खलु) निश्रय से ( माणुस्सं सुदुलहं - मानुष्यं सुदुर्लभम् ) यह मनुष्यभव अत्यंत दुर्लभ है । (तओ पच्छा - ततः पश्चात् ) इसके बाद (भुक्तभोगी - भुक्तभोगिनी) भुक्तभोगी होकर हम तुम दोनों (जिनमगं चरिस्सामोजिनमार्ग चरिष्यावः ) जिनोक्त मार्ग चारित्रलक्षणरूप मोक्षमार्ग का सेवन करेंगे ||३८|| रथनेमि के इस प्रकार के वचन सुनकर राजीमतीने जो किया सो कहते हैं-- 'दट्ठण इत्यादि । अन्वयार्थ - (राईमई - राजीमती) राजीमती साध्वीने (भग्गुजोय ૧૦૧ " एहि " इत्यादि ! अन्वयार्थ ---डे सुदृरि ! एहि - एहि । भोए भुंजिमो-भोगान् भुंञ्जीवही आयो भन्ने विषय लोगोने लोगवीथे । खु - खलु निश्चयथी माणुस्सं सुदुलहं - मानुष्यं सुदुर्लभम् मा मनुष्यलव अत्यंत दुर्लभ छ तओ पच्छा - ततः पश्चात् तेपछी आप भुत्तभोगी - भुक्तभोगी आयो भन्ने जिणमग्गं चरिस्सामो- जिनमार्ग चरिष्यावः नोत भार्ग-यारित्र सक्ष३५ भोक्षमार्ग सेवन शु . ॥३८॥ રથનેમિનાં પ્રકારના વચન સાભળીને રાજીમતીએ જે કહ્યુ તેને કહે છે."ET" Sale! अन्वयार्थ' - -राईमई - राजीमती शलभती साध्वी भग्गुज्जोय पराइयं भग्नो उत्तराध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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