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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. २० महानिर्ग्रन्थस्वरुपनिरुपणम् मूलम्--तओ हं एवमाहसुं, दुक्खमा हूँ पुगो पुणो । वेयणा अणुभविउं जे, संसारम्मि अणतए ॥३१॥ छाया -ततोऽहमेवमब्रुवं, दुःक्षमाः खलु पुनः पुनः। वेदना अनुभवितुं यत् , संसारे अनन्तके ॥३१॥ टीका--'तओ हं' इत्यादि । ततः तदनन्तरं-रोगपतीकारेषु विफलेष्विति भावः, अहमेवं दक्ष्यमाण प्रकारेण अब्रुवम्, यत् वेदनाः= अक्षिवेदनादिकाः खलु-निश्चयेन अनुभवितुं= वेदयितुं दुःक्षमाः दुशकाः। एवं विधा वेदना अनन्तके संसारे मया पुनः पुनः= वारं वारम् अनुभूताः ॥३१।। यतश्चैवमत:-- मूलम्--संइं चं जैइ मुच्चेजा, वेर्यणा विउला इओ। खंतो दंतो निरंभो, पव्वए अणगारियं ॥३२॥ छाया--सकृच्च यदि मुश्चेयं, वेदनाया विपुलाया इतः । क्षान्तो दान्तो निरारम्भः, प्रव्रजे यमनगारिताम् ॥३२॥ 'तओ हं' इत्यादि। अन्वयार्थ-(तओ-ततः) रोग का प्रतीकार जब विफल हो गया तब (अहं एवमाहंतु-अहम् एवं अब्रुवम् ) मैंने ऐसा कहा कि (वेयणा अणुभविउंजे दुक्खमा-वेदना अनुभवितुं अक्षमाः) ये आंख आदि की वेदनाएँ यद्यपि अनुभवन करने के लिये अशक्य हैं (अणंत ए-संसारम्मि पुणो पुणो-अनन्तके संसारे पुनःपुनः) परन्तु क्या किया जायमैंने तो इस अनंत संसार में ऐसी वेदनाएँ बारंबार भोगी हैं ॥३१॥ इस प्रकार की अनाथता का अनुभव होने पर उन्हों ने क्या विचार "तओ ह" त्यादि ! -क्या-तो-ततः शान। प्रति२ या न निल्यो त्यारे अहं. एवमाहंसु-अहं एवमब्रूवम् में मे ४घु वेयणा अणुभविउंजे दरवमा-वेदना अनुभवितुं अक्षमाः सा मां माहिनी वहनामा भनुभव ४२वामां मशय छ. अणतए संसारम्मि पुगोपुणो-अनन्तके संसारे पुनःपुनः परतु उपाय शु? में તો આ અનંત સંસારમાં આવી વેદનાએ વારંવાર ભેગવી છે. ૨૧ આ પ્રકારની અનાથતાને અનુભવ થવાથી મેં શું વિચાર કર્યો તે કહે છે – उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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