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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. १५ गा. ५ भिक्षुगुणप्रतिपादनम् दंशमशकं, उपलक्षणत्वात्-मत्कुणमुलमुलादिकं च प्राप्य एतैर्दष्टे सति अव्यग्रमनाः= स्थिरचित्तो भवेत् , तथा दंशमशकादिरहित स्थानलाभेऽपि असंप्रहृष्टो भवेत, हृष्टचित्तो न भवेत् । एतादृशः समसुखदुःखः सन् यः कृत्स्नं सकलं प्राप्तं सुखदुःखम् अध्यासीत-अधिसहेत, स भिक्षुरुच्यते। अनेन मुनिभिः प्रान्तशयनासनशीतोष्णदंशमशकादिपरीषहः सोढव्य इत्युक्तम् ॥४॥ विविधं दंशमशकं च भक्तवा) तथा शीत उष्णकी वेदना को एवं विविध प्रकार के दंशमशक मत्कुण सुल सुल आदि जीवों द्वारा उत्पन्न हुई वेदना को सहन करके (अव्वग्गमणे-अव्यग्रमनाः) सदा स्थिर चित्त बना रहता है और (असंपहिठे-असंप्रहृष्टाः) दंशमशकादि रहित स्थान के लाभ में हर्षित चित्त नहीं होता है। इस प्रकार दुःख और सुख में समचित्त रहते हुए (कसिणं अहियासए स भिक्खू-कृत्स्नम् अध्यासीत स भिक्षुः) जो प्राप्त हुए सब सुखदुःख को शांतिभाव से सहन करता है वही भिक्षु है। भावार्थ-प्रान्तशयन आसन आदि को उपयोग में लाते समय 'ये ठीक नहीं हैं नवीन होना चाहिये' तथा “यह आहार आदि भोजन सामग्री सरस नहीं है नीरस है-सरस होती तो अच्छा होता-यह शीत उष्ण वेदना नहीं सही जाती पर क्या करें? सहनी पडती है, कोई इसके लिये गति ही नहीं है" इत्यादि विचारों से रहित जिसकी दृष्टि है ऐसा साधुजन ही भिक्षु हैं। पदार्थों में विषम दृष्टिवाला मुनिजन भिक्षु नहीं है ॥४॥ વેદનાને અને વિવિધ પ્રકારના ડાંસ, મચ્છર, માંકડ, સુલસુલ આદિ જી દ્વારા उत्पन्न थती वहनाने सहन शने अव्वग्गमणे-अव्यग्रमनाः स्थिर चित्त मनी २ छ तथा असंपहिडे-असंपहष्टः iस, भ२०२ माथी २डित स्थानमा सामथी प्रसन्नयित्त थता नथी. या प्रमाणे दुः५ भने सुममा समायत्त सीन कसिणं अहि. यासए स भिक्खू-कृत्स्नम् अध्यासीत सः भिक्षुः प्राप्त यता सुम सने हमने શાંતિથી સહન કરે છે તે જ ભિક્ષુ છે. ભાવાર્થ–પ્રાન્ત શયન આસન આદિને ઉપયોગમાં લેતી વખતે “આ ઠીક નથી, નવું હોવું જોઈએ” તથા “આ આહાર આદિ ભેજન સામગ્રી નિરસ છે, સરસ હેત તે સારું થાત, આ ઠંડીની અને ઉષ્ણતાની વેદના સહન થતી નથી. પરંતુ શું કરીએ, સહેવી પડે છે. આને માટે બીજો કોઈ ઉપાય નથી” ઈત્યાદિ. વિચારથી રહિત જેમની દષ્ટિ છે એવા સાધુજન જ ભિક્ષુ છે. પદાર્થોમાં વિષમ દષ્ટિવાળા મુનિજન ભિક્ષુ નથી. આ उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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