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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ १८ क्रियावादिनां पापकारित्ववर्णनम १३५ नरकावासादो पतन्ति । च पुनः आर्यत् = उत्तमम् धर्म - जिनप्ररूपितं सद्धर्मं चरित्वा = आसेव्य, तु नराः, दिव्यां=देवलोकमम्बन्धिनीं गतिं सर्वगतिप्रधानां सिद्धिरूपां गतिं वा गच्छन्ति । हे संजय मुने ! असत्प्ररूपणापरिहारेण सत्प्ररूपणा परायणेनैव भवता भवितत्यमिति भावः ||२५|| एते क्रियावादिप्रभृतयः पापकारिणः कथम् ? इत्याहमूलम् - - मायाबुइयमेयं तु, मुसा भासा निरट्रिया । संजममाणो वि अहं, वसामि इरियांमि ये ॥ २६॥ छाया - मायोक्तमेतत्तु, मृषा भाषा निरर्थिका । संयच्छन्नपि अहं, वसामि ईरे च ||२६|| उन क्रियावादी आदिकों की तथा जिनमणीत सद्धर्मकी आराधना करनेवालों की क्या क्या गति होति है ? सो कहते हैं- 'पडंति' इत्यादि । अन्वयार्थ - (पावकारिणो- पापकारिणः) क्रियावादी आदि व्यक्तियों द्वारा कृत असत्प्ररूपणा के सेवन करने में परायण (जे-ये) जो ( नरा - नराः) मनुष्य हैं वे (घोरे नरए पडंति - घोरे नरके पतन्ति ) मरकर भयंकर सीमन्तक आदि नरकावास में जाते हैं । (च आरियं धम्मं चरिता-च आय धर्म चरित्वा) जिन प्ररूपित धर्मका सेवन करते हैं वे उसके सेवन से (दिव्वं गई गच्छंति-दिव्यां गतिं गच्छन्ति) देवलोक को अथवा समस्त गतियों में प्रधानभूत गति सिद्धिगति को प्राप्त करते हैं । इस लिये हे संयतमुने ! असत्प्ररूणा का परित्याग करके तुमको सत्प्ररूपणा करने में ही परायण बने रहना चाहिये ||२५|| એ ક્રિયાવાદી આદિમાની તથા જીનપ્રણીત સદ્ધર્મની આરાધના કરવાવાળાની शुं शुं गति थाय छे तेने हे छे– “पडंति" इत्यादि ! अन्वयार्थ - पात्रकारिणो- पापकारिण: डियावाही यहि व्यक्तियों द्वारा राती असत् अ३पालु सेवन रवामां परायण जे-ये ? नरा-नराः मनुष्य छे ते घोरे नरए पडंति - घोरे नरके पतन्ति भरीने भयंपुर सीमंत आदि नरडावासभां लय छे तथा ने व्यक्ति च आरियं धर्म चरित्ता - आर्य धर्म चरित्वाः न प्र३चित धर्मनु' सेवन रे छे ते तेना सेवनथी दिव्वं गइ गच्छति - दिव्यां गतिं गच्छन्ति દેવàાકને અથવા સમસ્ત ગતિએમાં પ્રધાનભૂત ગતિ સિદ્ધગતિને પ્રાપ્ત કરે છે. આ કારણે હે સયંત મુનિ ! અસત્ પ્રરૂપણાના પરિત્યાગ કરીને તમારે સત્ય પ્રરૂપશુા કરવામાંજ પરાયણુ ખની રહેવું જોઈ એ. પરષાા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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