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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. १८ संजयमुनि प्रति कस्यचिन्मुनेः प्रश्नः १२५ कुलेऽजनि । तत्र च कुतश्चित्तथाविधनिमित्ततः संजातपूर्वजन्मस्मृतिविरतिमापन्नः प्रव्रज्यामङ्गीकृतवान् । ततोऽप्रतिबद्धविहारितया विहरन् क्षत्रियराजर्षिः संजयमुनि विलोक्य तं पृच्छति-हे मुने। यथा ते तव रूपं प्रसन्न-विकारवर्जितं दृश्यते, तथा तदनुरूपमेव ते तव मनोऽपि प्रसन्नं निर्विकारं दृश्यते ॥२०॥ इस प्रकार दीक्षा धारणकर संजयमुनि गीतार्थ बन गये । और दस प्रकार की मुनि सामाचारी का पालन करने में सावधान बनकर उन्हों ने गुरु की आज्ञा से एकाकी होकर विहार करना प्रारंभ किया। विहार करते २ ये एक नगर में आये। वहाँ क्या हुआ सो अब प्रकट किया जाता है-'चिच्चा' इत्यादि। अन्वयार्थ--(खत्तिय-क्षत्रियः) किसी क्षत्रिय ने (रजं चिच्चा-राज्यं त्यत्त्वा) राज्य का परित्याग करके (पव्वइए-प्रत्रजितः) दीक्षा धारण की थी। यह क्षत्रिय राजऋषि थे, तथा पूर्वजन्म में वैमानिक देव थे। वहां से चवकर क्षत्रिय कुल में इन्हों ने जन्म धारण किया था । किसी निमित्त को पाकर इनको पूर्वजन्म की स्मृति आजाने के कारण सर्व विरति का उदय आ गया था, सो इन्हों ने शोघ्र ही राज्य का परित्याग कर दीक्षा धारण करली। अप्रतिबद्ध विहारी होने के कारण ये क्षत्रिय राजर्षि विहार करते हुए यहीं पर आ गये थे। सो उन्हों ने संजय मुनि को देखकर यह पूछा-हे मुने!-(जहा ते रूपं दीसह-यथा ते रूपं दृश्यते) जैसा तुम्हारा रूप विकार वर्जित दिख रहा है (तहा આ પ્રમાણે દીક્ષા ધારણ કરીને સંજય સુનિ ગીતાર્થ બની ગયા અને દસ પ્રકારની મુનિસામાચારીનું પાલન કરવામાં સાવધાન બનીને તેઓએ ગુરુની આજ્ઞાથી એકાકી બની વિહાર કરવાને પ્રારંભ કર્યો. વિહાર કરતાં કરતાં તેઓ એક નગરમાં साव्या त्या शुभन्यु ते। वे प्रगट ४२वामां आवे छे--"चिच्चा" प्रत्या!ि __ अन्याय--खत्तिए-क्षत्रियः क्षत्रिय रजं चिच्चा-राज्यं त्यत्तवा शयन परित्याशन पव्वइए-प्रव्रजितः दीक्षा घा२४ ४२ ती ते क्षत्रिय रात तथा પૂર્વજન્મમાં વૈમાનિક દેવ હતા. ત્યાંથી ચવીને ક્ષત્રિયકુળમાં તેઓએ જન્મ ધારણ કરેલ હતું. કેઈ નિમિત્તને લઈને તેને પૂર્વ જન્મની સ્મૃતિ આવી જવાના કારણે સર્વવિરતિનો ઉદય થઈ ગયો. આથી તેઓએ તરતજ રાજ્યને પરિત્યાગ કરીને દીક્ષા ધારણ કરી લીધી. અપ્રતિબદ્ધ વિહારી હોવાના કારણે એ ક્ષત્રિય રાજર્ષિ વિહાર કરતાં કરતાં અહીં આવી પહોંચ્યા હતા. તેમણે સંજય મુનિને જોઈને ५च्यु, मुनि ! जहा ते रूवं दीसइ-यथा ते रूपं दृश्यते २ रे तमा३ ३५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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