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प्रियदर्शिनी टीका अ. १८ संजयनृपमुनिदर्शनम् शीघ्रम् आगत्य हतान् मृगान दृष्ट्वा, तु-पुनः तत्र गर्दभालिम् अनगारं पश्यति ॥६॥
तथामूलम् -अहे राया तत्थे संभंतो, अणगारो मणी हओ"।
मएं उ पुन्नेण, रसगिद्धेणं चित्तुणा ॥७॥ छाया-~-अथ राजा तत्र संभ्रान्तः, अनगारो मनागाहतः
__ मया तु मन्दपुण्येन, रसद्धन घातुकेन ॥७॥ टीका--'अह' इत्यादि ।
अथ अनन्तरं तत्र-तस्मिन् मनौ दृष्टे सति संभ्रान्तो भयत्रस्तः स राजाएवमचिन्तयत्-मन्दपुण्येन-पुण्यहीनेन रसगृद्धेन-रसलोलुपेन घातुकेन-जीवहननशीलेन मनाक-मृगयारूप निरर्थक कार्य कुर्वता मया एष अनगारो हतः मारितस्तदीय मृगहननात् । परमकारुणिकाः साधवो हि परदुःखेन दुःखिता भवन्ति ॥७॥ अश्वगतः) घोडे पर चढा हुआ (सो राया-स राजा) वह राजा (खिप्पम्-क्षिप्रं) शीघ्र ही (तहिं-तत्र) उस स्थान पर (आगम्म-आगम्य) आकर (हए मिएउ पासिता-हतान् मृगात् दृष्ट्वा) मरे हुए मृगोंको देखने लगा। इतने में ही (तत्थ अगगारं पासइ-तत्र अनगारं पश्यति) उसकी दृष्टि एक मुनिराज पर पडी जो वहीं बैठे हुए थे ॥६॥
तथा--'अह राया' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(अह-अथ) इसके बाद (तत्थ-तत्र) उन मुनिराजके दिवने पर (संभंतो-सभ्रान्तः) भयत्रस्त (राया-राजा) राजाने ऐसा विचार किया कि-मुनिराजके मृगोंको मार देनेसे (मंदपुन्नेणं-मंदपुण्येन) पुण्यहीन (रसगिद्धेण-रसगृद्धेन) तथा रसलोलुपी मुझ (घितुणा-घातुअश्वगतः ५२ सवार थयेट सो राया-स राजा ते स खिप्पं-क्षिणम् शीघर तहि-तत्र से स्थान पर आगम्म-आगम्य मा०या मने भावान हिए मिएउ पासित्ता-हतान मृगान् दृष्टा भरे। भृगाने नेवा भांडया मा समये से तत्थ अणगारं पासइ-तत्र अनगारं पश्यति ताम५भा मेडेसा मे मुनिरास ઉપર એની દષ્ટી ગઈ છે
तथा-'अह राया' त्या !
सन्याय-अह-अथ त्यारपछी तत्थ-तत्र सामुनि२००४ ५२ दृष्टि ५४ता संभतोसंभ्रान्त : नयनरत राया-राजा से ना सिमा प्रा२नु
मे न्यु , मंद पुन्नेणं-मंदपुण्येन में पुष्यडिन तथा रसगिद्धेण-रसगृद्धेन समापिवितुणाघातुकेन धात उl 24भृगाने नथी भार्या ५२तु मणा-मनाक व्यय मा
उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3