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उत्तराध्ययनसूत्रे
उक्तमर्थ सविस्तरं गाथात्रयेणाह -
मूलम् -
हिंसे' बाले मुसावाई, अद्धामि विलोए । अन्नाऽदत्तहरे तेणे, माई कन्नुरे सढे ॥ ५ ॥ छाया - हिंस्रः बालः मृषावादी, अध्वनि विलोपकः । अन्यादत्तहरः स्तेनः मायी कंनुहरः शठः || ५ || टीका - ' हिंसे ' इत्यादि ।
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हिंस्रः = माणातिपातकरणपरायणः, बालः = अज्ञानी मृषावादी = असत्यभाषी, अध्वनि=मागे, विलोपक: बलात् पथिकानां सर्वस्वहारकः, अन्यादत्तहरः = अदत्तादानकारकः, अतएव स्तेनः = चौरः, मायी = कपटक्रियाकुशलः, कँनुहरः कं - पदार्थ, जिस प्रकार वह मेंढा पाहूनों के लिये कल्पित हुआ उसी प्रकार बाल जन भी नरक आयु के लिये कल्पित होते हैं ॥ ४ ॥
इसी बात को सूत्रकार तीन गाथाओं से विस्तार पूर्वक बतलाते हैं'हिसे बाले मुसाबाई ' ' - इत्यादि ।
अन्वयार्थ - ( हिंसे - हिंस्रः ) प्राणातिपात के करने में परायण ( बाले - बालः ) यह बाल - अज्ञानी जीव ( मुसावाई - मृषावादी) मृषावादी होता है (अद्धामि विलोवए-अध्वनि विलोपकः) मार्ग में जबदस्ती पथिकों को लूट लेता है ( अन्नादत्त हरे - अन्यादत्तहरः ) अन्य की नहीं दी हुई वस्तु को चुरा लेता है ( तेणे- स्तेनः ) चोर रूप से प्रसिद्ध होता है (माई - मायी) कपट क्रिया में बडा कुशल होता है (सढे - शठः) अरे ! यह वक्र - टेढे- विरुद्ध आचार से युक्त व्यक्ति (कंनुहरे - कंनु हरः ) ધરાવવા માટે રૂપુષ્ટ કરવામાં આવ્યુ હતું તેજ પ્રકારે ખાલજના પણ નરકઆયુષ્ય માટે જ રસલેાલુપી અને છે, ॥ ૪॥
આ વાતને સૂત્રકાર ત્રણ ગાથાએથી વિસ્તાર પૂર્વક સમજાવે છે.-" हिंसे बाले मुसावाई " त्याहि.
भ्यन्वयार्थ - हिंसे - हिंत्रः प्रशातीयात ४२वाभां परायण बाले - बालः भा जस-भज्ञानी व मुमावाई - मृषावादी भृषावाही होय छे. अद्धाणम्मिविलो एअध्वनि विलोपकः भागमा नगर४स्तीथी भुसाइरीने सुंटी से छे. अन्नाऽदत्तहरेअम्यादत्तहरः श्रीन्जो नहीं आयेसी थिन्ले योरी से छे, तेणे- स्तेनः । २३५थी प्रसिद्ध थाय छे, माइ-मायी उपट डियामां धा पुराण होय छे. सढे-शठः भावी विरुद्ध भायारथी युक्त व्यक्ति कन्नुहरे कंनुहरः श्रेवी अर्ध थिन जाही
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨