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उत्तराध्ययनसूत्रे स्पर्शादिषु, इदमुपलक्षणं वस्त्रभूषणादावपीत्यर्थः सर्वशः सर्वैः प्रकारैः स्वयं करण कारणा-नुमोदनैरित्यर्थः मनसा-केनोपायेन वयं शोभनवर्णादिमन्तो भविष्याम, इति भावनया, कायवाक्येन-कायश्च वाक्यं चेति समाहारस्तेन, तत्र कायेन-रसायनाथुपयोगेन, वाक्येन-रसायनादिप्रश्नात्मकेन, च सक्ताः अनुरक्ताः, भवन्ति, ते सर्व दुःखसंभवाः-दुःखानां संभवः उत्पत्तिर्येषु ते तथा, दुःखोत्पत्तिस्थानभूता भवन्तीत्यर्थः ॥१२॥ __ मोक्ष मार्ग से जो विमुख होकर चलते हैं सूत्रकार उनके दोष बतलाते हैं—'जे केइ सरीरे'- इत्यादि। __ अन्वयार्थ-(जे केइ-ये केचित् ) जो कोई (सरीरे-शरीरे) शरीर के विषय में :(वण्णे-वर्णे) गौरवादिक वर्ण में (रूवे य-रूपे च ) संस्थान आदि आकार में, च शब्द से स्पर्श आदि में उपलक्षण से वस्त्र भूषण आदि में भी (सव्वसो-सर्वशः ) सर्व प्रकार से स्वयं करना, कराना एवं अनुमोदना रूप प्रकारों से (मणसा-मनसा ) मनसे-'किस उपाय से हम सुन्दरवर्णादिविशिष्ट हो सकेंगे' इस भावना से (कायवक्केणं-कायवाक्येन) काय से-रसायन आदि के उपयोग से, वाक्यसे रसायन आदि के पूछने से (सक्ताः ) अनुरक्त होते हैं (ते सव्वे-ते सर्वे) वे सब (दुःखसंभवा-दुःखसंभवाः ) दुःख की उत्पत्ति के स्थानभूत होते हैं। अर्थात्-जो प्राणी शरीर में शब्द रूप रस गंध स्पर्श में सर्व प्रकार से मन वचन कायसे अनुरक्त होते हैं वे सर्व दुःखों के भागी होते हैं ॥ १२ ॥
મોક્ષમાર્ગથી વિમુખ થઈને જે ચાલે છે સૂત્રકાર તેના દેષ બતાવે છે"जे केइ सरीरे " त्यादि
मन्वयार्थ-जे केइ-ये केचित् ने सरीरे-शरीरे शरी२॥ विषयमा वणे-वणे गौरवाEि-२। १ भां, रूवे य-रूपे च संस्थान माहिमाम 'च' शपथी २५श माहिमां, ५३क्षथी वस्त्र भूषण माहिमा पर सव्वसो-सर्वशः सर्व प्रारथी-२१ ४२७, ४२११ अनुभाहन ३५ घराथी मणसा-मनसा મનથી “ક્યા ઉપાયથી હું સુંદર વર્ણવાળે બની શકું?” આ ભાવનાથી कायवक्केणं-कायवाक्येन याने २साय माहिना 6पयोगथी पायथी सक्ताः मनु२४ थाय छे ते सव्वे-ते सर्वे ते सघणा दुःखस भवा-दुःखसंभवा हुभानी ઉત્પત્તિના સ્થાન ભૂત બને છે. અર્થાત-જે પ્રાણી શરીરમાં તથા રૂપ, રસ, ગંધ, સ્પર્શમાં સર્વ પ્રકારથી મન વચન અને કાયાથી અનુરક્ત હોય છે તે દુઃખના ભાગી બને છે. જે ૧૨ છે
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨