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________________ आचारमणिमञ्जूषा टीका, अध्ययन ७ ११७ ध्वनितम् | 'सामाणिए सयाजए ' ति पदेन 'निरन्तरसाधुधर्माराधक एवहितालोमिक भाषणक्षमो भवति नेतरः' इति व्यक्ती भवति । 'हियं' इति पदेन ऐहिकपारलौकिक सुखकरत्वं भाषायाः सूचितम् । 'आणुलोमियं' इतिपदेन श्रवणसुखजनकत्वं भाषायां प्रतीयत इति ॥ ५६ ॥ अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह - ' परिक्खभासी' इत्यादि । मूलम् - परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए चउक्सायावगए ॲणिस्सिए । सेनि घुन्नमैलं पुरेकडं आरोहए लोगंमिणं हा पैरं ॥५७॥ छाया - परीक्ष्यभाषी सुसमाहितेन्द्रियः चतुष्कषायापगतः अनिश्रितः । सनिय धान्यमलं पुराकृतम् आराधयति लोकमिमं तथा परम् ।। इति ब्रवीमि ॥५७॥ टीका- 'परिक्ख' इत्यादि । परीक्ष्यभाषी = गुणदोषपर्यालोचनपूर्वक भाषणशीलः, सुसमाहितेन्द्रियः = वशीकृतेन्द्रियः, चतुष्कषायापगतः - चतुर्विधकषायसंसर्गरहितः, अनिश्रितः = द्रव्यरक्षा करने वाला ही भाषासमितिका सम्यक प्रकार से पालन कर सकता है । 'सामाणिए जए' पदसे यह सूचित किया है कि निरन्तर धर्म की आराधना करने वाला ही साधु हितकारी भाषा बोल सकता है अन्य नहीं । 'हियं' पदसे भाषा का इह - परलोक सम्बन्धी सुखकरत्व सूचित किया है । 'आणुलोमियं ? पदसे यह प्रतीत होता है कि भाषा श्रवणसुखद होना चाहिए ॥५६॥ इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं- 'परिक्खभासी' इत्यादि । गुण दोषों का विचार करके बोलने वाला, इन्द्रियों को वशमें करने वाला, चारों कषायों का त्याग करने वाला, द्रव्य - भाव भाषा समितिनुं सभ्य प्रहारे पासन उरी शडे छे. सामाणिए जए पहथी प्रेम सूचित કર્યું છે કે નિર ંતર ધર્મની આરાધના કરનારા સાધુ જ હિતકારી ભાષા ખેલી શકે છે— બીજો નહિ ચિં શબ્દથી ભાષાનુ ઇહુ-પરલોક સંબધી સુખકરત્વ સૂચિત કર્યું છે. आलोमियं शब्दथी म प्रतीत थाय छे है-भाषा श्रवणु-सुमह होवी लेखे. (यह आा अध्ययनना उपसंर २ छे परिक्खभासी० ४त्याहि गुण होषोनो વિચાર કરીને ખેલનાર, ઇંદ્રિયને વશ કરનાર, ચારે કષાયાના ત્યાગ કરનાર, દ્રવ્ય-ભાવ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨
SR No.006368
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages287
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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