SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारमणिमञ्जूषा टीका, अध्ययन ७ ११३ टीका-'तहेव' इत्यादि। तथैव या गीः सावधानुमोदिनी हिंसादिकलुषकर्मानुमोदिनी यथा'मुष्ठु हतो मृगादिरनेने' ? त्यादिका, अवधारिणी संशयितार्थे निश्चयरूपेण प्रतिपादिका ' एवमेवैत'-दित्यादिका, या च परोपघातिनी परोपघातविधायिनी, यथा-'पशुहनने सिद्धिर्भवति,-मांसमदिरादिनिषेवणे वा दोषो न भवती'त्यादिका, से-तां-तथाभूतां गिरं मानवः मनुते जिनाज्ञामिति मानवः ; साधुः क्रोधात् उपलक्षणतया मानादपि, लोभात् , उपलक्षणत्वेन मायातोऽपि, भयात्, हासात् , उपलक्षणतया प्रमादादेरपि तथा हसनपि न वदेत् । सूत्रे क्रोधादीनि पदानि लुप्तपञ्चमीविभक्तिकानि । ' सावज्जणुमोयणी' इति पदेन सावधकर्मप्रशंसया तजनितपापभागित्वं मूचितम् । 'ओहारिणी' इत्यनेन शाङ्कितार्थे निश्चयरूपेण भाषणे तहेव' इत्यादि । जो भाषा सावद्य अर्थात् हिंसा आदि पाप कर्मों का अनुमोदन करने बाली हो, जैसे-'इसने मृगको अच्छा मारा है' इत्यादि, तथा संदिग्ध (संदेहयुक्त) पदार्थ में 'यह ऐसा ही है। इस प्रकार की निश्चयकारी, तथा जो भाषा पर की हिंसा करने वाली हो, जैसे कि-'पशुका हवन करने से सिद्धि मिलती है, मांसमदिरा के सेवन करने में दोष नहीं है' इत्यादि भाषा साधु, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, हास्य तथा प्रमाद आदि से न बोले और हँसता हुआ भाषण न करे। 'सावजणुमोयणी' पदसे यह सूचित किया है कि सावद्य कार्यों की प्रशंसा करने से सावध कर्म जनित पाप का भागी होना पडता है। "ओहारिणी' पदसे यह प्रगट किया है कि संदेहयुक्त विषय में निश्चयकारी भाषा बोलने से मृषावाद आदि दोषों का तहेव० ४त्यादि भाषा सावध अर्थात् (हंसा मा पा५४नु अनुमान કરનારી હોય, જેમકે-“એણે મૃગને ઠીક માર્યો છે? ઈત્યાદિ, સંદિગ્ધ પદાર્થમાં એ આમજ છે” એ પ્રકારની નિશ્ચયકારી, તથા જે ભાષા પરની હિંસા કરનારી હાય, જેમકે “પશુને હવન કરવાથી સિદ્ધિ મળે છે, માંસ મદિરાનું સેવન કરવામાં દેષ નથી” ઈત્યાદિ ભાષા સાધુ કોધ, માન. માયા. લેભ, ભય, હાસ્ય તથા પ્રમાદ આદિથી ન બોલે અને હસીને ભાષણ ન કરે. सावजणुमोयणी पक्षी मे सूथित युछ सावध भनी प्रशंसा કરવાથી સાવધ કમજનિત પાપના ભાગી થવું પડે છે શારિ શબ્દથી પ્રકટ કર્યું છે કે-સંદેહયુત વિષયમાં નિશ્ચયકારી ભાષા બોલવાથી મૃષાવાદ આદિ દેને પ્રસંગ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨
SR No.006368
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages287
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy