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________________ १९२ दशाश्रुतस्कन्धसूत्रे मेचक स्फटिकादिः, मौक्तिकं मुक्ताफलं शङ्खः, शिलाप्रवाल- शिलारूपं प्रवालं= विद्रुमम् एतेभ्यो यावज्जीवम् अप्रतिविरतो भवति । " सर्वाभ्यां कूटतुला - कूटमानाभ्यां - कूटतुला = परवञ्चनार्थ स्वाभीष्टानुकूलं कपटेन वस्तुतोलनम्, कूटमानं= छलेन न्यूनाधिकतया वस्तुपरिमाणकरणं ताभ्यां यावज्जीवम् अप्रतिविरतः । सर्वाभ्याम् आरम्भ - समारम्भाभ्याम् आरम्भो= हिंसादिसावद्यव्यापारः समारम्भः = परपीडाजनकोच्चाटनादिव्यापारः, स च कायिकवाचिक-मानसिक-भेदात्त्रिविधः, तत्र - १ कायिकः समारम्भो यथाऽमिघाताय जब आदि । मणि - पृथ्वीकाय से उप्तन्न होने वाले इन्द्रनील रत्न, वैडूर्य, पद्मराग, चन्द्रकान्त, मेचक = कृष्णवर्णरत्न, स्फटिक आदि । तथा मुक्ताफल, शंख, शिलाप्रवाल - विशिष्ट रंग वाले मूँगे । इन सब से जीवनपर्यन्त निवृत नहीं होता है । तथा सब प्रकार के कूट तोल और कूट माप से निवृत नहीं होता है । कूटतुला - दूसरों को ठगने के लिये अपने अनुकूल कपट से वस्तु को न्यूनाधिक तोलना । कूटमान - कपट से वस्तुका न्यूनाधिक माप करना । इन से वह जीवन पर्यन्त निवृत्त नहीं होता है । तथा आरम्भ और समारम्भ से निवृत्ति नहीं करता है । हिंसा आदि सावध व्यापार को आरम्भ कहते हैं । दूसरों को पीडा उत्सन्न करनेरूप उच्चाटन आदि व्यापार को समारम्भ कहते हैं । वह कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकार का है । (१) कायिक समारम्भ- मारने के लिये लाठी मह, तत्र, धौं, शासि भने ४१ यहि मणि= पृथ्वी अयथी उत्पन्न थवावाणां. भडे-इन्द्रनील रत्न, वैडूर्य, पद्मराग, अन्द्रान्त; भेरा४= सॄष्णुवर्ण रत्न, स्टूटिङ साहि तथा भुस्ताइस, शांभ, शिलाप्रवास = विशिष्ट रंगवाला मूंगा. मा अधांथी लवनપન્ત નિવૃત્ત થતે નથી. તથા સર્વાં પ્રકારના કૂટતાલ ( ખાટાંતાલ ) ને ફૂટમાપથી નિવૃત્ત થતા નથી. ફૂટતુલા-બીજાને ઠગવામાટે પેાતાને અનુકૂલ થાય તેવી રીતે કપટથી વસ્તુને આછી વધતી તાળવી. ફૂટમાન - કપટથી વસ્તુનું વધારે એછું માપ કરવું. તેનાથી તે જીવન પર્યં'ત નિવૃત્ત થતો નથી. તથા આરંભ અને સમારભથી નિવૃત્ત થતા નથી. હિંસા આદિ સાવદ્ય વ્યાપારને આરભ કહે છે. બીજાને પીડા ઉત્પન્ન કરવારૂપ ઉચ્ચાટન આદિ વ્યાપારને સમારમ્ભ છે. તે કાયિક, વાચિક, અને માનસિક એવા ભેદથી ત્રણ પ્રકારના છે. શ્રી દશાશ્રુત સ્કન્ધ સૂત્ર
SR No.006365
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages511
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size25 MB
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