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________________ ४८४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'चत्तारि देवसाहस्सीओ' चत्वारि - चतुः संख्यकानि देवसहस्राणि "गयरुवधारीणं देवाणं" गजरूपधारिणां देवानाम् ' दाहिणिल्लं बाहं परिवर्हति त्ति दाक्षिणात्याम् - दक्षिणदिगfarai arti परिवहन्तीति ॥ सम्प्रति तृतीय बाहा वाहकान् दर्शयितुमाह- "चंदविमाणस्स णं" इत्यादि, 'चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं' चन्द्रविमानस्य खलु पश्चिमेन पश्चिमस्यां दिशि इत्यर्थः 'सेयाणं' श्वेतानाम् - शुक्लवर्णवताम्, 'सुभगाणं' सुभगानां - प्रीति समुत्पादकानाम् 'सुप्पमाणं' सुप्रभाणाम्, विलक्षण तेजोवताम् 'चलचवलककुहसालीणं' चलचपल ककुदशालिनाम्, तत्र चलचपलम् - इतस्ततो दोलायमानत्वेनास्थिरत्वादति चपलं ककुदम् - अंशकूटंशतेन शालिनाम् - शोभमानानाम् 'घणणिचियसुबद्ध लक्खणुण्णय ईसियाणयवसभोद्वाणं' घननिचित सुबद्धलक्षणोत्रतेपदान वृषभौष्ठानाम्, तत्र घनवत् - अयोधनवत् निचितानां निर्भृतशरीराणाम्, अतएव सुबमन को भी आनन्द पहुंचाने वाला होता है, ऐसे शब्द से ये 'अंबर दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देव साहस्सीओ' चार हजार गजरूप धारी देवता आकाश को और चारों दिशाओं को शोभित करते हैं और 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहंति ति' दक्षिणदिगवस्थित बाहा को खेचते हैं। 'चंद विमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं' चन्द्रविमान की पश्चिम दिशा में रखें हुए वृषभरूपधारी देव पश्चिमदिग्वर्ती बाहा को खेचते हैं, इस प्रकार से समझ कर इस पाठ को इस प्रकार से लगाना चाहिये ये वृषभरूप देव 'सेयाणं' शुक्लवर्णवाले होते हैं 'सुभगाणं' प्रीतिसमुत्पादक होते हैं 'सुप्पभाणं' विलक्षण तेजवाले होते हैं 'चल चवल ककुहसालीणं' ककुदकांधोर वाले होते हैं यह इनकी कक्कुद - चाल चपल - इधर उधर दोलायमान होने से अति चञ्चल होती रहती है इस ककुद से ये वृषभरूपधारी देव बडे ही अधिक सुहावने लगते हैं ! 'घणणिचिथ सुबद्धलक्ख गुण्णयईसियाणयवस भोद्वाणं' इनके मुखों का जो ओष्ठ होता है मानन्द यहांथाडनार होय छे, भाषा शम्होथी तेथे 'अंवरदिसाओ य सोभयंता चत्तारिदेव साहस्सीओ' यार इन्भर गर३पधारी देवता आाशने तेमन यारे हिशाओने शोलित रे छे भने 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहंति त्ति' दक्षिणु हिगवस्थित वहाने जेथे छे. 'चंद्रविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं सुभगाणां 'चन्द्रविभाननी पश्चिमद्विशामां रहेला वृषभ રૂપધારી દેવ પશ્ચિમદિગ્બત્તી વહાને ખેંચે છે એ રીતે સમજીને આ પાઠને આ પ્રમાણે लागू पाडवा हये. या वृषल३पहेव 'सेयाणं' शुभ्सव'वाणा होय छे. 'सुभगाणं' प्रीतिसमुत्याह होय छे, 'सुप्पभाणं' विलक्षण तेनवाणा होय छे. 'चलचबलककुहसालीणं' ५६કાંધાવાળા હોય છે. એમની આ કા ચલચપલ-આમતેમ ડોલાયમાન થતી હાવાથી અતિ ચંચલ થતી લાગે છે. આ કકુથી આ વૃષભરૂપધારી દેવ ઘણા જ અધિક सोहाभागा मागे छे 'घणणिचिय सुबद्धलक्खगुण्णयई सियाण यवसभोद्वाणं' खेभना भुखना है જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006356
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages567
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size35 MB
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