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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू० ९ तापक्षेत्रादिनिरूपणम् १३७ णं माणुस्सुत्तरस्स पब्बयस्त' अन्तर्मध्ये खलु मानुषोतरस्य सम्बन्धिनः 'जे चंदिमसूरिय जाव तारारूवे' ये चन्द्रसूर्यग्रहनक्षतारारूपाः ज्योतिष्काः 'तेणं देवा' ते खलु उपर्युक्ता देवाः 'नो उद्धोववन्नगा नो कप्पोवनगा' नो ऊर्वोपपन्नकाः सौधर्मादिद्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्ध्वम्-उपरि यानि ग्रैवेयकानुतरविमानानि तत्र नोत्पन्नाः न वा कल्पोपपत्रकाः सौधर्मादि विमानेषु नोत्पन्ना इत्यर्थः । किन्तु 'विमाणोववनगा विमानोपपत्रका, विमानेषु-चन्द्रसूर्यहुआ है वह गौतमस्वामी में भगवान के प्रति अति प्रीति का द्योतक है मनुष्यो का सद्भाव-उत्पति स्थिति मरण आदि-मानुषो तर पर्वत के पहिले २ तक है मानु. षोतर पर्वत के बाद उस तरफ मनुष्यों का सद्भाव उत्पत्ति स्थिति मरण आदि नहीं है इसलिये इसका नाम मानुषोतर ऐसा हुआ है-अथवा-विद्या आदि शक्ति के अभाव में मनुष्य इसे किसी भी प्रकार से उल्लङ्घन नहीं कर सकते है इसलिये भी इसका नाम मानुषोत्तर हुआ है वैमानिक देवों के कल्पोपपन्न और कल्पातीत के भेद से दो भेद प्रतिपादित हुए है यही बात यहाँ 'उद्घोवव. न्नगा कप्पोववन्नगा' इन पदों द्वारा प्रकट की गई हैं चारस्थिति" पदमें जो मण्डलगति परिभ्रमण करने रूप चार-गतिका अभाव प्रकट किया गया है वह स्था धातु का अर्थ गति निवृत्ति को लेकर किया गया हैं इस तरह से किये गये इन प्रश्नों का उत्तर प्रभु देते हुए कहते हैं-'गोयमा ! अंतोणं माणुसुतरस्स पव्वयस्स जे चंदिम सूरिय जाव तारारूवे तेणं देवा णो उद्धोववण्णगा, जो कप्पोचवण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, णो चारट्टिईया गइरईया गइ. समावण्णगा' हे गौतम! मानुषोत्तर पर्वत सम्बन्धि चन्द्र, सूर्य यावत् तारा येસૂત્રમાં જે બે વખત “ભદન્ત’ શબ્દ પ્રયુક્ત થયેલ છે તે ગૌતમમાં ભગવાન પ્રત્યે જે અતિપ્રીતિ છે તે બતાવે છે. માણસનો સદુભાવ-ઉત્પત્તિ-સ્થિતિ મરણ આદિમાનુષોત્તર પર્વતની પહેલાં પહેલાં સુધી છે. માનુષેત્તર પર્વત પછી તે તરફ મનુષ્યને સભાવ ઉત્પતિ–સ્થિતિ મરણ વગેરે નથી. એથી આનું નામ માનુષેત્તર એવું થયું છે. અથવા વિદ્યા વગેરે શક્તિના અભાવમાં મનુષ્ય આને કઈ પણ પ્રકારથી ઉ૯લંઘન કરી શકતા નથી એટલા માટે પણ આનું નામ માનુષે તર થયેલું છે. વૈમાનિક દેવોના કપ પન્ન भने ३८५ातीतना लेस्था में ही प्रतियाहित थयेा छ. से वात महीं 'उद्धोववन्नगा कप्पोववन्नगा' में पह। 43 १३८ ४२पामा साक्षी छ. 'यास्थिति' मारे भगति પરિભ્રમણ કરવા રૂપ ચાર-ગતિને અભાવ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે તે “થા ધાતુને मय गति-निवृत्ति'२. सन २ाम मा छे. या प्रमाणे प्रश्नो ४२पामा मासा छ तनावमा प्रभु मा शते साये छ-'गोयमा ! अंतोणं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम सूरिथ जाव तारारूवे तेणं देवा णो उद्घोषवण्णगा, णो कप्पोववष्णगा, विमाणोवषण्णगा, चारोववष्णगा, णा चारदिईया, गइरइया, गइ समावण्णगा' हे मातम ! मानुषातर पति ज०१८ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006356
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages567
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size35 MB
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