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________________ १२४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भंते ! किं पुढं ओमासेंति' हे भदन्त ! तत् क्षेत्रं सूर्यो स्पृष्ठ-स्वस्य तेजसा व्याप्तम् अवभासयतः किंवा अस्पृष्टं तेजसाऽव्याप्तं क्षेत्र मवभासयत इति प्रश्नः, भगवानाह हे गौतम ! स्वतेजसा व्याप्तमेव क्षेत्र मवमासघतो नतु स्वतेजसाऽव्याप्तं क्षेत्र मवभासयतः, दीपादि तैजसद्रव्याणां प्रकाशस्य गृहादिद्रव्यस्पर्शपूर्वकमेवावभासकरयस्य दर्शनात् । ' एवं आहार पयाई यच्वाई' एवं स्पृष्टपदप्रदर्शितप्रकारेण आहारपदानि चतुर्थीपाङ्गगताष्टाविंशतितमपदे आहार ग्रहण विषयकानि द्वाराणि नेट्व्यानि तद्यथा- पुद्रोगाहमणंतर अणुमहआदि विसयाणुपुथ्वीय जावणियमा छद्दिसिं' स्पृष्टावगाढ मनन्तरमणुमहदादि विषयाणुपूर्वी च यावन्नियमात् दिशम् प्रथमतोऽवभासनाहारादि द्वारेषु स्पृष्टविपयकं सूत्रं स्वमनसा प्रकल्प्य तद्सूत्रकार अब संक्षेप से प्रकट करते हैं 'तं भंते किं पुढं ओभासेति' हे भदन्त ! ये दोनों सूर्य उस क्षेत्र रूप वस्तु को स्पृष्ट करके प्रकाशित करते हैं अर्थात् अपने तेज से उसे व्याप्त करके उसका प्रकाशन करते हैं या अस्पृष्ट करके उसे प्रकाशित करते हैं ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! हे गौतम! वे दोनों सूर्य अपने तेज से व्याप्त हुए ही उस क्षेत्र रूप वस्तुका प्रकाशन करते हैं अपने तेज से अव्यास हुए क्षेत्ररूपवस्तु का प्रकाशन नहीं करते हैं । यह तो हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि दीपादिक जो तैजस द्रव्य विशेष हैं उनका प्रकाश ग्रहादि द्रव्यों का जो प्रकाश करता है वह उनसे स्पृष्ट होकर ही करता हैअस्पृष्ट होकर नहीं करता है । ' एवं आहारपपाई णेयव्वाई' स्पृष्टपद प्रदर्शित प्रकार के अनुसार अहारपदों को चतुर्थ उपाङ्गगत अष्टाविंशतितमपद में आहार ग्रहण विषयक द्वारों को भी समझ लेना चाहिये-जैसे 'पुट्ठो गाढमणंतर अणुमह आदि विसयाणुपुच्वीय जाव नियमा छद्दिसिं' अवभासन आहार आदि द्वारों में स्पृष्ट विषयक सूत्र अपने मन से बनाकर उसका व्याख्यान करना, र हवे संक्षेपमा प्र४८ ४२ छे. 'तं भंते ! कि पुट्ठे ओभासेति' हे मह ंत ! थे मन्ने સૂર્યાં તે ક્ષેત્ર રૂપ વસ્તુને પૃષ્ટ કરીને પ્રકાશિત કરે છે. એટલે કે પેાતાના તેજથી તેને વ્યાસ કરીને તેને પ્રકાશમાન કરે છે અથવા અસ્પૃષ્ટ કરીને તેને પ્રકાશિત કરે છે? એના भवाभां अलु उहे छे. 'गोयमा !' हे गौतम! ते जन्ने सूर्ये पोताना तेथी व्यास થયેલા તે ક્ષેત્રરૂપ વસ્તુનું પ્રકાશન કરે છે પોતાના તેજથી અભ્યાસ થયેલી વસ્તુનુ પ્રકાશન કરતા નથી. આ તે અમે સ્પષ્ટ રૂપમાં જોઇ શકીએ તેમ છીએ કે દીપાદિક જે તેજસ દ્રવ્ય વિશેષ છે, તેમનેા પ્રકાશ ગૃહાદ્વિ દ્રબ્યાને જે પ્રકાશિક કરે છે, તે તેમના વડે પૃષ્ટ थाने ४ ४२ छे. अस्पृष्ट थाने नहि. 'एवं आहारपयाइ' णेयव्वाई' स्पृष्ट यह - अहશિત પ્રકાર મુજખ આહાર પદ્મને-ચતુ ઉપાંગગત અવિશતિતમ પદમાં આહાર अणु विषय द्वाराने या सम सेवा लेध्ये नेम 'पुट्टो गाढमणंतर अणुमहआदि विसयाणुपुवीय जाव नियमा छद्दिसि' अवलासन आहार वगेरे द्वारामां स्पृष्ट विषयक જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006356
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages567
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size35 MB
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