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________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कार: सू १ जिनजन्माभिषेकवणनम् ५६३ पन्ति समवहत्य विक्षिप्य पुनर्वे क्रियसमुद्घातपूर्वकं संवर्तकवातान् विकुर्वन्ति इति 'विउच्चिता' विकुर्व्य 'ते सिवेणं मरणं मारुणं तेन तत्कालविकुर्वितेन शिवेन उपद्रवरहित कल्याणमयेन, मृदुकेन भूमिविणा मारुतेन वायुना 'अणुद्धएणं भूमितलविमलकरणेणं 'मणहरेणं' अनुद्धतेन अनूर्ध्वगामिना भूमितल विमलकरणेन - पृथिवीतल स्वच्छकारिणा मनोहरेण मानसरञ्जनकारकेण 'सच्वोउअसुरहि कुसुमगंधाणुबासिएणं पिंडिमणिहारिमेणं गंधुद्धष्णं तिरिअं पवारएणं' सर्व ऋतुकसुर भिकुसुमगन्धानुवासितेन पिण्डिमनिहरिमेण गन्धोद्धरेण तिर्यक् प्रवातेन तत्र सर्व ऋतुकानां षड् ऋतु समुत्पन्नानां सुरभिकुसुमानां सुगन्धितपुष्पाणां गन्धेन अनुवासितेन पिण्डिमः - पिण्डितः सन् निर्धारिमो-दुरं निर्गमनशीलो यस्तेन तथाभूतेन गन्धेन उद्धरेण बलिष्ठेन, तिर्यक् वातुमारब्धेन प्रवातेन वायुना 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोयणपडिमंडलं' भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः दिक्षु समन्ताद् विदिक्षु योजनपरिषण्डलम् ताः अष्टौ दिक्कुमार्य : ' से जहाणामए कम्मारसंवर्तकवायुकाय की विकुर्वणा की वह वायुकाय शिव - कल्याणरूप था मृदुक था भूमि के ही ऊपर बहता था इसलिये अनुद्धत था अनूर्ध्वगामी था - ऊपर की ओर नहीं वहता था इससे भूमितल को साफ करनेवाला होने से वह मनोरञ्जक था 'सच्चोउय सुरभिकुसुमगंधाणुवासिएणं' समस्त ऋतुओं के पुष्पों की गन्ध से वह वासित था 'पिण्डिमणिहारिमेणं' उसकी गंध पिण्डित होकर दूर दूर तक जाती थी अतः वह (उद्धरेणं) बलिष्ठ था और (तिरिअं पवाइएणं) तिरछा चल रहा था ऐसे ( मारुएणं) उस वायुकाय के द्वारा (भगवओ तित्थयरस्स जम्मण भवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं से जहा णामए कम्मदारए सिआ जाव तहेव) भगवान् तीर्थंकर के जन्म भवन की सब तरफ से अच्छी तरह से उन आठ महतरिक दिक्कुमारियों ने कर्मदारक की तरह संमार्जना की सफाई की यहां आगत यावत्पाद से कर्मदारक के विशेषणों का बोधक पाठ इस प्रकार से है - यह प्रकट किया गया है- " से जहाणामए कम्मवरदारए सिया तरुणे बलवं, સવક વાયુકાયની વિકણા કરી. તે વાયુકાય શિવ કલ્યાણ રૂપ હતું. મૃદુક હતું, ભૂમિ ઉપર જ પ્રવાહિત થતું હતું એથી અનુદ્ધત હતું. અનુગામી હતું, એટલે કે ઉપરની તરફ पडेनारु ं न तु मे लूभित साई पुरनार हेतु तेथी भनार ४५ ३तु': 'सव्वोउयसुरभि कुसुमगन्धाणुवासिएणं' सर्व ऋतुयाना पुष्योनी गधथी ते मावासित हेतु 'पिंडिमणिहारिमे णं तेनीग'ध पिउ३५ थर्धने दूर-दूर सुधी तो हतो, मेथी ते 'उद्धरेणं' असशासी हेतु अने 'तिरिअॅपवाइए णं' वगतिथी यास हेतु' वा 'मारुणं' ते वायुडाय वडे 'मगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समता जोयणपरिमंडल से जहा नामए कम्मदारए सिआ जाव तहेव' हे भगवान् तीर्थકરના જન્મ ભવનના ચેમેરથી સારી રીતે તે આઠ મહતરિક દિકુમારિકાઓએ ક`દારકુની જેમ સમાના કરી-સફાઈ કરી. અહીં આવેલા યાવત પદ્મના પાઠથી કર્માંદારકના જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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