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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् ५१५ ताऽपि हिमव कूटानामिव बोध्या, एषां 'रायहाणीउ' राजधान्यः-वक्ष्यमाणनीलवन्नामकदेवस्य निवसतयः 'उत्तरेणं' उत्तरेण मेरुत उत्तरस्यां दिशि बोध्याः, अथास्य नीलवदिति नामकारणं पृच्छति-'से केणटेणं भंते !' अथ केन अर्थेन-कारणेन भदन्त ! 'एवं वुच्चइ' एवमुच्चते नीलवदित्याकारकं नाम व्यवहिय ते एतदेव स्पष्टयतिणीलवंते वासहरपब्वए२' नीलवान् वर्षधर पर्वतो नीलवान् वर्षधरपर्वतः इति प्रश्नस्योत्तरं भगवानाह-'गोयमा !" गौतम ! अयं नीलवान् पर्वतः ‘णीले' नीलः नीलवर्णः 'णोलोभासे' नीलावभास अवभास नमवभासः, नीलोऽवभासः प्रकाशो यस्य स नीलावभासः, यद्वा-नीलमवभासयतीति नीलावभासः नीलप्रकाशः, स्वा सन्नमन्यदपि वस्तु नीलवर्णमयं करोति तेन नीलवर्णयोगाद् नीलवानित्युच्यते, अथास्याधिपमाह-'णीलवंते य इत्थ देवे' नीलवांश्चात्र देवः परिक्सतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, स च कीदृशः? इत्याह-'महिद्धीए जाव परिवसइ' महद्धिको यावत् परिवसति अत्र यावत्पदेन-"महाद्युतिकः, इनके सम्बन्ध की वक्तव्यता भी हिमवत्कूट के जैसी हो जाननी चाहिये नीलवान् नामक देवकी एवं कूटों के अधिपतियों की राजधानियां मेरु की उत्तरदिशा में जाननी चाहिये। 'सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णीलवंते वासहरपव्वए? हे भदन्त ! ऐसा आपने इस पर्वत का नाम "नीलवान् पर्वत" क्यों कहा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा !णीले णीलोभासे णीलवंते अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलियामए णीलवंते जाव णिच्चेति' हे गौतम ! जो चतुर्थ नीलवान् गिरि है वह नीलवर्ण वाला है और इसीसे इसका प्रकाश नीला होता है यह अपने पास में रही हुई अन्य वस्तुओं को भी नीलवर्णमय करदेता है अतः नीलवर्ण योग से इसे 'नीलवान' ऐसा कहा गया है। इस पर्वत का अधिपति नीलवान् देव है, वह यहां पर रहता है यह महद्धिक देव है यावत् एक पल्योपम की इसकी आयु है यहां यावत्पद से 'महाद्युतिकः, महाबलः, महारायहाणी उ उत्तरेणं' 2 माटो हिमपत्नी रेभ ५०० योन रेटा छ. मेथी એમના વિશેની વક્તવ્યતા પણ હિમવલૂટ જેવી જ સમજવું જોઈએ. નીલવાનું નામક वीनी मने टीना अधिपतियानी धानीमा भेनी उत्तर दिशामा मावसी छे. 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णीलवंते वासहरपव्वए २' लत! मा५श्रीमे ॥ ५ तनु नाम 'नासवान् ५त' से श॥ १२९यी छ ? अन पासमा प्रभु छे-'गोयमा ! णीले णीलोभासे णीलवंते अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलियामए णीलवन्ते जाव णिच्चेति' गौतम ! ये रे या नातवान् ५'त छ त नीeng पाणी छे. मने એથી જ એને પ્રકાશ નીલવર્ણ હોય છે. એ પિતાની નજીક પડેલી બીજી વસ્તુઓને પણ નીલવર્ણ મય કરી નાખે છે. એથી નીલવર્ણના યોગથી આને “નીલવાન ” નામથી સંબોધવામાં આવેલ છે. આ પર્વતને અધિપતિ નીલવાન્ દેવ છે. તે અહીં રહે છે. આ મહદ્ધિક દેવ છે. યાવત એક પામ જેટલું એનું આયુષ્ય છે. અહીં યાવત પદથી જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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