SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू०४२ मन्दरस्य षोडशनामनिरूपणम् ५०५ गिरितोऽप्यधिकतुङ्गखात् 'य' च-चशब्दः प्राग्वत् १४, पञ्चदशं नामाह-'दिगादी य' दिगादिः च-दिशां-पूर्वादीनाम् आदिः प्रभवः उत्पत्तिस्थानम्, तथाहि-रुचकपर्वताद् दिशा विदिशां चोत्पत्तिः, रुचकस्याष्टप्रदेशात्मकस्य मेरुपर्वतान्तर्गतत्वाद्दुचकवन्मेरुरपि प्राधान्येन दिगादिरुच्यते १५, षोडशं नामाह-'वडेंसे' अवतंसः पर्वतानां मुकुटायमानः प्रधानत्वात् १६, 'य सोलसे' च षोडश चशब्दः प्राग्वत् इति षोडशसंख्यकानि मन्दरनामानि कश्चितु षोडश:-षोडशानां पूरण इत्याह । ___ अथ पूर्वोक्तस्य मन्दरेति प्रधाननाम्नोऽन्वर्थतां वर्णयितुमुपक्रमते ‘से केणडेणं भंते !' इत्यादि-चतुर्थसूत्रोक्तपदमवरवेदिकावद बोध्यम् तत्र स्त्रीत्वेन निर्देशः अत्र पुंस्त्वेनेति विशेषः, तथा-पद्मवरवेदिकानाम तत्र, अत्र तु मन्दरेति नाम अन्यत्सर्व समानमिति ॥सू० ४२॥ यह इसका १४ वां नाम है इसका कारण यह है कि यह अन्य जितने भी पर्वत है उनकी अपेक्षा बहुत ऊंचा है अतः उनमें यह श्रेष्ठ गिना गया है दिगादि यह इसका १५ वां नाम है क्यों की पूर्वादि दिशाओं की उत्पत्ति का यही आदि कारण है रुचक से दिशाओं की और विदिशाओं की उत्पत्ति होती है यह रुचक अष्ट प्रदेशात्मक होता है और मेरु के अन्तर्गत माना गया हैं अतः मेरु से दिशाओं की उत्पत्ति होती है ऐसा मानलिया जाता है और इसी से मेरु को दिगादि कह दिया गया है। अवतंस यह इसका १६ वां नाम है अवतंस नाम मुकुट का है समस्त पर्वतों के बीच में यह मुकुट के जैसा गिना गया है इसलिये इसे “अवतंस” के रूप में इस नामान्तर द्वारा प्रकट किया गया है इस प्रकार से ये मेरु के १६ नाम हैं। _ 'से केणटे णं भंते ! पुच्चइ मंदरे पव्वए' हे भदन्त ! इसका मन्दर पर्वत ऐसा नाम आपने किस कारण से कहा है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा? मंदरे पव्वए मंदरे णामं देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओवमटिइए, से तेणઅપેક્ષાએ અતીવ ઊંચા છે, એથી તે સર્વમાં આ પર્વત શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે. “દિગદિ આ પ્રમાણેનું આ પર્વતનું પંદરમું નામ છે. કેમકે પૂર્વાદિ દિશાઓની ઉત્પત્તિનું એજ આદિ કરણ છે. રુચકથી દિશાઓની અને વિદિશાઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ સુચક અષ્ટ પ્રદેશાત્મક હોય છે, અને મેરુન અંદર એની ગણના થાય છે. એથી મેરૂથી દિશાઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. એવું માની લેવામાં આવે છે અને એથી જ મેચને દિગાદિ કહેવામાં આવેલ છે. “અવત સ” આ એનું સેળનું નામ છે. અવતંસ મુકુટનું નામ છે. સમસ્ત પર્વતેના મધ્ય સ્થાનમાં અને મુકુટ જે માનવામાં આવેલ છે, એથી જ આને અવતંસના રૂપમાં નામાન્તરથી સંબોધિત કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ મેરુના ૧૬ નામે થયા. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ मंदरे पव्वए' है महत! ५'तनु भन्४२ मे नाम भा५श्री शारथी छ? मेन मम प्रभु ४ छ-'गोयमा ! मंदरे पव्वए णामं देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओवमदिए, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ मंदरे ज०६४ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy