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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २८ द्वितीयसुकच्छविजयनिरूपणम् ३७५ वनसंडेणं' वनषण्डेन 'संपरिक्खित्तं' सम्परिक्षिप्तम् 'वण्णओ' वर्णकः- पद्मवरवेदिका वनपण्डयोवर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः, स च चतुर्थपञ्चमसूत्राभ्यां बोध्यः। तथा 'सीयामुहवणस्स शीतामुखवनस्य च वर्णको बोध्यः स च 'किण्हे किण्होभास' इत्यादि पदैः पञ्चमसूत्रोक्त वोध्यः, किम्पयन्तः ? इत्याह-'जाव देवा आसयंति' यावद् देवा आसते देवा आसत इति पर्यन्तो वर्णको बोध्यः, स च षष्ठसूत्रादवगन्तव्यः, अथोपसंहरमाह-एवं उत्तरिल्लं पासं समत्तं' एवमौत्तराहं पाश्व समाप्तम् + एवम्-विजयादिवर्णनेन औत्तराहम् उत्तरदिग्भवं पार्श्व पार्श्वभागः समाप्तम्-सम्पूर्णम् वक्तव्यमिति शेषः, प्राक् चतुर्विभागत्वेनोद्दिष्टस्य विदेहक्षेत्रस्य पूर्वोत्तरपावं विजयादि वर्णनापेक्षया पूर्ण निर्दिष्ट मित्यर्थः, पव्ययंतेणं) नीलवंत वर्षधर पर्वत के पास में इसका विष्कम्भ : भागप्रमाण रह गया है अर्थात् १ योजन के १९ खंडों में से एक खण्ड प्रमाण रह गया है (से णं एगाए पउमवरवेझ्याए एगेण य वणसंडेणं संपरिक्खित्तं वण्णओ सीयामुहवणस्स जाव देवा आसयंति एवं उत्तरिल्लं पासं सम्मत्त) यह सीता महानदी का उत्तर मुखवन एक पद्मवरवेदिका से और एक वनषण्ड से संपरिक्षिप्त है-घिरा हुआ है इन दोनों का पद्मवर वेदिका और वनषण्ड का यहां पर वर्णन कर लेना चाहिये और यह वर्णन चतुर्थ और पंचम सूत्र से समझ लेना चाहिये तथा सीता मुख का वर्णन “किण्हेकिण्होभासे" आदि पदों द्वारा जैसा पीछे वन का वर्णन किया जा चुका है वैसा ही वह वर्णन-“यावत् अनेक व्यंतर देव और देवियां यहां पर आकर आराम करती हैं विश्राम करती है" यहां तक के सूत्रपाठ को वहां से लेकर यहां पर कह लेना चाहिये यह सूत्रपाठ वहां छ? सूत्र में कहा गया है इस तरह के इस विजयादि के वर्णन से उत्तर दिग्वती जो पार्य भाग है उसका वर्णन समाप्त हो गया जानना चाहिए पूर्व में विदेह क्षेत्र के નીલવન્ત વર્ષધર પર્વતની પાસે એને વિઝંભ ૨ ભાગ પ્રમાણ રહી ગયું છે. એટલે
म४ यान १८ मामाथी १५3 प्रभाएy orat २ही गया छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं संपरिक्खित्तं वण्णओ सीयामुहवणरस जाव देवा आसयंति एवं उत्तरिल्लं पासं सम्मत्तं' मा सीता महानही नु उत्तर भुभवन 3 ५५१२ हाथी અને એક વનખંડથી સંપરિક્ષિત છે-આવેષ્ટિત છે. પદ્મવર–વેદિકા અને વનખંડ એ બનેનું અહીં વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. અને એ વર્ણન ચતુર્થ અને પંચમ સૂત્રમાંથી पांथी वे नये. तभर सीता भुसपननु वएन किण्हे किण्होभासे' पोरे पह। 43 જેવું પહેલાં વનનું વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તેવું જ બધું વર્ણન યાવત્ અનેક વ્યન્તર દેવ અને દેવીએ ત્યાં જઈને આરામ કરે છે–વિશ્રામ કરે છે. અહીં સુધીના સૂત્રપાઠને અત્રે અધ્યાહુત કરી લેવો જોઈએ. એ સૂત્રપાઠ ત્યાં છટ્ટા સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ વિજ્યાદિના વર્ણનથી ઉત્તર દિશ્વત જે પાર્શ્વ ભાગ છે, તેનું વર્ણન સમાપ્ત થયું છે, એમ સમજવું જોઈએ, પૂર્વમાં વિદેહ ક્ષેત્રના ચાર વિભાગે પ્રકટ
જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર