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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २८ द्वितीयसुकच्छविजयनिरूपणम् ३६९ पङ्कावत्याः तृतीयान्तरनद्याः पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि, इति, अथ प्रागुक्त तृतीथान्तरनदी वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं' इत्यादि-प्राग्वत् केवलम् 'पंकावईकुंडे' पङ्कावतीकुण्ड 'णाम' नाम 'कुंडे' कुण्डम्, तत्र पङ्कावतीत्यस्य पङ्काऽतिशयेनास्त्यस्यामिति पङ्कावती, अत्रापि शरादिखादीों बोध्यः, अथ पुष्कलावर्त सप्तमविजयं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं' इत्यादि सुगमम्, अथ चतुर्थ(जहा कच्छस्स विजए तहा एसो भाणियव्यो जाव मंगलावते य इत्थ देवे परिवसइ, से एएणटेणं) इस मंगलावर्त विजय का वर्णन कच्छबिजय के वर्णन जैसा है यावत् इसमें मंगलावर्त नामका देव रहता है इस कारण इसका नाम मंग लावर्त विजय ऐसा कहा गया है (कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पकावई कुडे णामं कुडे पण्णत्ते ) हे भदन्त ! महाविदेहे क्षेत्र में पावती नामका कुण्ड कहां पर कहा गया है (गोयमा ! मंगलावत्तस्स पुरथिमेणं पुक्खलविजयस्स पच्चथिमेणं णीलवंतस्स दाहिणे णितंबे एत्थ णं पं भवई जाव कुडे पण्णत्त) हे गौतम! मंगलावर्त विजय की पूर्व दिशा में, पुटकलविजय की पश्चिम दिशा में एवं नीलवंत पर्वत के दक्षिण दिग्वतीं नितम्ब पर पङ्कावती नाम का कुण्ड कहा गया है। (तंचेव गाहावइ कुडेप्पमाणं जाव मंगलाव तपुक्खलावत विजए दुहा विभयमाणी २ अवसेसं तं चैव जं चेव गाहावईए) इसका प्रमाण ग्राहावती कुण्ड के जैसा ही है यावत् इस कुण्ड से पङ्कावती नामकी एक अन्तर नदी निकलती है और इसने मंगलावर्त और पुष्कलावत विजय को विभक्त कर दिया है बाकी का और सब कथन इसी नदी के सम्बन्ध का ग्राहवती नदी के जैसा ही है (कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पुक्खला वते णामं विजए पण्णते) है विजए तहा ऐसो भाणियध्वो जाव मंगलावते य इत्थ देवे परिवसइ से एएणटेणं' मा મંગલાવ વિજયનું વર્ણન કચ્છવિજયના વર્ણન જેવું છે, યવત્ એમાં મંગલાવત नाम४ व २९ छ. मेथी मेनुनम मसातविय को रावामां आवे छे. 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पंकावई कुंडे णामं कुडे पण ते' 3 महत ! महावि क्षेत्रमा यावती नाम ॐ ज्या स्थणे मावेश छ ? 'गोयमो ! मंगलावत्तस्स पुरथिमेणं पुक्खल विजयस्स पच्चस्थिमेणं णीलवंतस्स दाहिणे णितंबे एत्थणं पङ्कावई जाव कुंडे पण्णत्ते' ३ ગૌતમ ! મંગલાવર્ત વિજયની પૂર્વ દિશામાં પુષ્કળ વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ નીલવંત પર્વતનાં દક્ષિણ દિગ્વતી નિતંબ ઉપર પંકાવતી નામક કુંડ આવેલ છે. 'तं चेव गाहावइ कुडप्पमाणं जाव मंगलावत्त पुक्खलाव तविजए दुहा विभयमाणी २ अवसेसं तं चेव जे चेव गाहावईए' मेनु प्रमाण पाहायता से छे. यावत् २५॥ કુંડમાંથી પકાવતી નામે એક અંતર નદી નીકળી છે અને એણે મંગલાવર્ત અને પુષ્ક. લાવત વિજયને વિભાજિત કર્યા છે. એ નદીના સંબંધમાં બાકી બધું કથન ગ્રાહાવતી प्र०४७ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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