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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम् ३४५ तदर्थश्च तत्रैव द्रष्टव्यः, 'उभओ पासिं' उभयोः-द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहिं' द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभ्याम् ‘दोहि य द्वाभ्यां च 'वणसंडेहिं वनपण्डाभ्याम् 'संपरिक्खित्ते' सम्परिक्षिप्तः सम्यक प्रकारेण परिवेष्टितः, 'वण्णओ' वर्णकःवर्णनपरः पदसमूहः 'दुण्ह वि' द्वयोरपि अत्र अन्यत उवृत्य न्यसनीयः, तत्र पद्मवरवेदिका वर्णकश्चतुर्थसूत्रात वनषण्डवर्णकश्च पश्चमसूत्राद् बोध्यः। अथास्य शिखरभागवर्णनमाह-'चित्रकूडस्स' चित्रकूटस्य 'णं' खलु 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'उप्पि' उपरि 'बहुसमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः 'भूमिभागे' भूमिभागः ‘पण्णते' प्रज्ञप्तः 'जाव आसयंति' यावदासते अत्र यावत्पदेन भूमिभागवर्णनं तथा 'तत्थ बहवे वाणमन्तरा देवाय देवीओय' इति च सग्राह्यम्, एतच्छाया'तत्र बहवः व्यन्तराः 'वानमन्तराः' देवाश्च देव्यश्च' इति, तत्र-भूमिभागवर्णनं षष्ठ सूत्रात् संग्राह्यम् तथा-तत्रेत्यादीनां पदानामर्थश्च तत एव बोध्यः, । की जानकारी चतुर्थ सूत्र से करलेनी चाहिये 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' यह दोनों पार्श्वभागों की तरफ दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो वनषंडो से अच्छी तरह से घिरा हआ है। 'वण्णओ' वनपंड और पद्मवरवेदिका का वर्णन यहां पर करलेना चाहिये यह इसका वर्णन क्रमशः पंचम सूत्र और चतुर्थ सूत्र में किया जा चुका है। 'चितकूडस्स वक्खारपव्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' चित्रकूटनामके वक्षस्कार पर्वत का ऊपर की भूमिका जो भाग है वह बहुसमरमणीय है 'जाव आसयंति' यहां यावत् अनेक देव देवियां आराम किया करती है तथा सोती उठती बैठती रहती हैं। यहां यावतू पद से भूमिभाग के वर्णन करने की एवं 'तत्थ बहवे बाणमंतरा देवाय देवीओय' इस प्रकार से पाठको ग्रहण करने की बात कही गई है भूमिभाग के वर्णन को जानने के लिये छठा सूत्र देखना चाहिये 'चित्तकूडे णं वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! व्याच्या यतु सूत्रमाथी नवीन. 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' से तमन्न पावाग त२३ से ५१२ माथी तभर मे वनमाथी सारी शत पारवृत छ. 'वण्णओ' न मने पझ२ वानुवर्णन અહીં કરવું જોઈએ એ બનેનું વર્ણન ક્રમશઃ પંચમ સૂત્ર અને ચતુર્થ સૂત્રમાં કરવામાં भाव छ. 'चितकूडस्स वक्खारपव्वयस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते' चित्र કૂટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વતની ઉપરની ભૂમિકાને જે ભાગ છે. તે બહુ સમરમણીય છે. 'जाव आसयंति' मही यावत् मने हैव-हवीमो माराम ४२ती २२ छ तभ सूती, 38ती-सती २३ छे. मी यावत् ५४थी मूभिमागनु १ ४२वानी भर 'तत्थ बहवे वाणमंतरदेवा य देवीओ य' 20 प्रभाग ५: ग्रहण ४२वानी पात पाभा मावली छ. भूमिलान वन विष ! माटे छ। सूत्रनी व्याभ्या पांयी नये. 'चित्तकूडे ज० ४४ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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