SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः चर्तुलवापीनाम जलाशयविशेषाः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, ता नामतो निर्दिशति-तं जहा' तद्यथा-'पउमा' पद्मा १ 'पउमप्पभा' पद्मप्रभा २ 'कुमुदा' कुमुदा३ 'कुमदप्पभा' कुमुदप्रभा ४, एताः पूर्वादि दिक्क्रमेण स्वविदिग्गतप्रासादं परिवेष्टय व्यवस्थिताः, अनयैव रीत्याऽग्निकोणादि विदित्रये प्रत्येकं चतस्रश्चतस्रः पुष्करिण्यो वक्तव्याः, तासां मानमाह-'ताओ णं' ताः खलु पुष्करिण्यः 'कोसं आयामेणं' क्रोशम् आयामेन-दर्पण, ‘अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशम्-क्रोशस्या? 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण 'पंच धणुसयाई' पञ्च धनुःशतानि पञ्चशतीधषि 'उव्वेहेणं' उद्वेधेन-भूप्रवेशेन प्रज्ञप्ताः । तासां 'वष्णओ' वर्णकः वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः स च प्रकरणान्तराद् ग्राह्यः, 'तासि णं' तासां चतसृणां वापीनां खलु 'मज्झे' मध्ये-मध्यभागे 'पासायवर्डसगा' प्रासादावतंसका:-प्रासादेषु उत्तमाः प्रासादाः प्रज्ञप्ताः, अत्र बहुवचनमुक्तवक्ष्यमाणवापीनां प्रासादापेक्षया बोध्यम् तेन प्रतिहित्ता' प्रथम वनषण्ड के पचास योजन प्रवेश करने पर 'एत्थ णं' यहां पर 'चत्तारि' चार 'पुक्खरिणीओ' वावडियां 'पण्णत्ताओ' कही गई है-उनके नामादि कहते हैं-'तं जहा-'पउमा' पदमा? 'पउमप्पभा' पदमप्रभा२, 'कुमुदा'३ 'कुमुदप्पभा' कुमुदप्रभा४ ये पूर्वादि दिशा के क्रमसे अपने से विदिशामें आये हुए प्रासादको चारों ओर से घिरकर स्थित रहते हैं। इसी प्रकार से अग्निकोणादि तीन विदिशामे प्रत्येक को चार चार पुष्करणियां कहनी चाहिए । उनका मान कहते हैं-'ताओणं' वे पुष्करणियां 'कोसं आयामेणं' एक कोस की लंबाई वाली कही है 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' आधा कोसका उसका विष्कंभ-विस्तार कहा है। 'पंचधणुसयाइं उव्वेहेणं' पांचसो धनुष का उनका उद्वेध-गहराई हैं । 'वण्णओ' इनका समग्र वर्णन अन्य प्रकरण में कहे अनुसार समझ लेवें । 'तासिणं' वे चारों वावडिके 'मज्झे मध्य भागमे 'पासायपडेंसगा' प्रासादावतंसक-श्रेष्ठ महल कहे है । यहां बहुवचन वक्ष्यमाणवापी के प्रासादों की अपेक्षा से जानना षमा ५यास योशन प्रवेश ४२वाथी 'एत्थण' 2487यां 'चत्तारि' या२ 'पुक्खरिणीओ' पाव 'पण्णत्ताओ' अवामां आवे छे. तेना नामा - प्रमाणे छ 'तं जहाँ म 'पउमा' ५झा १ 'पउमप्पभा' ५मा २ 'कुमुदा' भु।। 3 'कुमुदप्पभा' भुपमा ४ પૂર્વાદિ દિશાના કમથી પિતાનાથી વિદિશામાં આવેલ પ્રાસાદોને ચારે તરફથી ઘેરીને રહે છે. એ જ પ્રમાણે અગ્નિ કેણાદિ ત્રણ વિદિશામાં પ્રત્યેકને ચાર ચાર પુષ્કરિણિયે કહેવી नये. भा५ सतावे छे.-'ताओ ' से पुरियो 'कोसं आयामेणं' मे 18 २४ी ainी ४ छ 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' अर्धा 18 २८ तन qिuxm विस्तार हेस छ. 'पंच धणुसयाई उव्वेहेणं' पांयसो धनुष २८ तेना द्वेष-1532 छे. 'वण्णओ' तेनुस पूरा वन मन्य ५४२६४भा ५९ ४ा प्रमाणे सभ७ से. 'तासिणं' से यारे पावनी 'मझे' मध्य भागमा 'पासायवडेंसगा' प्रासादायतस उत्तम महता જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy