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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २७५ खल 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वेण पूर्वदिशि 'पण्णासं जोयणाई पढमं' पञ्चाशतं योजनानि प्रथमम् - आदिमं 'वणसंडं ओगाहित्ता' वनषण्डम्' अवगाह्य - प्रविश्य ' एत्थ णं' अत्र - अत्रान्तरे खलु 'भवणे' भवनं-गृहं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तस्य मानमाह - 'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेन - दैर्येण, प्रज्ञप्तम् एतावताऽपरितुष्यन्नाह - 'सो चेव' स एवेति सः - पूर्वोक्को मूल-जम्बू पूर्वशाखागत भवनसम्बन्ध्येव 'वण्णओ' वर्णकः - वर्णनपर पदसमूहोऽत्र बोध्यः, 'सयणिज्जं च' शयनीयं शय्या, अनादृतदेवयोग्यम् यत् तदपि बोध्यम् ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण 'सेसासु वि' शेषासु - अवशिष्टासु दक्षिणादिषु तिसृषु 'दिसासु' दिक्षु प्रत्येकं पश्ञ्चशतं योजनान्यवगाह्य प्रथमवनपण्डे 'भवणा' भवनानि वक्तव्यानि, अथात्र प्रथमवने पुष्करिणी चतुष्टयं वर्णयति'जंबू णं' इत्यादि - जंबूए णं उत्तरपुरत्थिमेणं' जम्ब्वाः खल उत्तरपौरस्त्येन - ईशानकोणे दिग्भागे 'पढमं वणसंडं पण्णासं - जोयणाई ओगाहित्ता' प्रथमं वनषण्डं पञ्चाशतं योज - नानि अवगाह्य - प्रविश्य 'एत्थ णं' अत्र - अत्रान्तरे खलु ' चत्तारि ' चतस्रः - चतुःसंख्याः अब जंबू वृक्षके भीतरी भाग का वर्णन करते हैं-'जंबूएणं' सपरिवार जंबू के 'पुरस्थिमेणं' पूर्वदिशा की तरफ 'पण्णासं जोयणाई पढमं' पचास योजन पर पहला 'वणसंड ओगाहित्ता' वनषंड में प्रवेश करके 'एत्थ णं भवणे पण्णत्ते' यहां पर भवन कहा है, वह भवन 'कोसं आयामेणं' एक कोस लंबा है, 'सोचेव वणओ' मूल जंबू के वर्णन में पूर्वशाखा में कहा हुआ भवन संबंधी समस्त वर्णन यहां पर समझ लेवें, 'सयणिज्जं च' अनादृत देव के योग्य शय्या भी कह लेवें । ' एवं ' इसी प्रकार 'सेसासु' बाकी की दक्षिणादि तीनों 'दिसासु' दिशाओं में प्रत्येक में पांचसो २ योजन प्रविष्ट होने पर प्रथम यवनखंड में 'भवणा' भवन कह लेवें । 1 अब प्रथमभवन में चार पुष्करिणियों का वर्णन करते हैं- 'जंबूएणं उत्तर पुरस्थिमेणं' जंबू की ईशान दिशा में 'पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई' ओगा हवे वृक्षना अंडरना लागनु वर्शन रे छे - 'जंबूएणं' सपरिवार जूना पुरत्थिमेणं' पूर्व हिशानी त२३ 'पण्णास जोयणाई पढमं' पन्यास योजन पर पहला 'वनसंड ओगाहित्ता' वनष' उभां प्रवेश अरीने 'एत्थ णं भवणे पण्णत्ते' त्यां लवना भावेला छे. थे लवने। 'कोसं आयामेणं' मे४ गाउ भेटला सांगा छे. 'सो चेव वण्णओ' भूज जूना વર્ષોંનમાં પૂર્વ શાખામાં કહેલ ભવન સ`ખંધી સઘળુ' વર્ણન અહીંયાં સમજી લેવું. ‘સૂચ णिज्जं च' अनाहत हेवने योग्य शय्या पशु ही सेवी एवं' खेन रीते 'सेसासु' माडीनी दक्षिणाहि त्रये 'दिसासु' हिशाओमी हरेश्भां चांन्यसो योजन प्रवेश १२वाथी पहेला वनषडभां 'भवणा' भवनो समय सेवां हवे पहेला वनभां यार पुण्डरिलियोनुं वर्णन उरे छे - 'जंबूएणं उत्तरपुर स्थिमेण ' भूनी शान दिशामां 'पढमं वणसंडं पण्णासं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता' पहेला वन જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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